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बिभ्र॑द्द्रा॒पिं हि॑र॒ण्ययं॒ वरु॑णो वस्त नि॒र्णिज॑म्। परि॒ स्पशो॒ निषे॑दिरे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bibhrad drāpiṁ hiraṇyayaṁ varuṇo vasta nirṇijam | pari spaśo ni ṣedire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बिभ्र॑त्। द्रा॒पिम्। हि॒र॒ण्यय॑म्। वरु॑णः। व॒स्त॒। निः॒ऽनिज॑म्। परि॑। स्पशः॑। नि। से॒दि॒रे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे इस वायु वा सूर्य्य के तेज में (स्पशः) स्पर्शवान् अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म सब पदार्थ (निषेदिरे) स्थिर होते हैं और वे दोनों (वरुणः) वायु और सूर्य्य (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) अग्न्यादिरूप पदार्थों को (बिभ्रत्) धारण करते हुए (द्रापिम्) बल तेज और निद्रा को (परिवस्त) सब प्रकार से प्राप्त कर जीवों के ज्ञान को ढाँप देते हैं, वैसे (निर्णिजम्) शुद्ध (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मय प्रकाशयुक्त को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (द्रापिम्) निद्रादि के हेतु रात्रि को (परिवस्त) निवारण कर अपने तेज से सबको ढाँप लेता है॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे वायु बल का करने हारा होने से सब अग्नि आदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों को धरके आकाश में गमन और आगमन करता हुआ चलता और जैसे सूर्य्यलोक भी स्वयं प्रकाशरूप होने से रात्रि को निवारण कर अपने प्रकाश से सबको प्रकाशता है, वैसे विद्वान् लोग भी विद्या और उत्तम शिक्षा के बल से सब मनुष्यों को धारण कर धर्म में चल सब अन्य मनुष्यों को चलाया करें॥१३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुपथ

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र में सुपथ से चलने का संकेत था , प्रस्तुत मन्त्र में उस सुपथ का संकेत करते हैं - (वरुणः) - वरुण का उपासक , द्वेष का निवारण करनेवाला पुरुष [यहाँ 'वरुण' शब्द वरुण के उपासक के लिए है । वरुण का उपासक भी 'वरुण' है] (हिरण्ययम्) - ज्योतिर्मय (द्रापिम्) - कवच को (बिभ्रद्) - धारण करता हुआ होता है । 'ज्ञान' ही वह ज्योतिर्मय कवच है । 'ब्रह्म वर्म ममान्तरम्' इस वेदवाक्य में ज्ञान को आन्तर कवच कहा है । यह वासनाओं के  आक्रमण से मनुष्य की रक्षा करता है , एवं ज्ञान - प्राप्ति सुपथ की पहली सीढ़ी है ।  २. (वरुणः) - द्वेष का निवारण करनेवाला व्यक्ति (निर्णिजम्) - अति शुद्ध हृदय को (वस्ते) - धारण करता है । द्वेष ही तो मन की मैल है । इसे दूर करके यह शुद्ध मन को धारण करता है । यह 'मनःशुद्धि' सुपथ की दूसरी सीढ़ी है ।  ३. (स्पशः) [हिरण्यस्पर्शिनो रश्मयः - सा०] ज्ञान - ज्योति का स्पर्श करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों की रश्मियाँ (परिनिषेदिरे) - इसके चारों ओर निषण्ण होती हैं , अर्थात् यह इन्द्रियों को शुद्ध बनाकर उन्हें ज्ञान - प्राप्ति में लगाता है , एवं 'ज्ञानन्द्रियों का ज्ञान - प्राप्ति में लगे रहना' सुपथ की तीसरी सीढ़ी है । संक्षेप में 'बुद्धि , मन व इन्द्रियों' का शोधन , इन्हें असुरों का निवासस्थान न बनने देना ही 'सुपथ' है । इस सुपथ का आक्रमण करके ही हम दीर्घजीवी होंगे । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - ज्ञान हमारा दीप्तिमय कवच हो , ज्ञान द्वारा हम मन को निर्मल करें और ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान - प्राप्ति के कार्य में व्यापृत रहें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

अन्वय:

यथाऽस्मिन् वरुणे सूर्य्ये वा स्पर्शवन्तः सर्वे पदार्था निषेदिरे एतौ निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत एतान् सर्वान् पदार्थान् सर्वतोऽभिव्याप्याच्छादयतस्तथा विद्यान्यायप्रकाशे सर्वान् स्पर्शवन्तः पदार्थान् निषाद्य निर्णिजं हिरण्ययं ज्योतिर्मयं द्रापिं बिभ्रत् सन् वरुणो विद्वान् परिवस्त वस्ते सर्वान् शत्रून् स्वतेजसाऽऽच्छादयेत्॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बिभ्रत्) धारयन् (द्रापिम्) कवचं निद्रां वा। अत्र ‘द्रै स्वप्ने’ अस्माद् इञ्वपादिभ्य इतीञ् (हिरण्ययम्) ज्योतिर्मयम्। ऋत्व्यवास्त्व्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेनायं निपातितः ‘ज्योतिर्वै हिरण्यम्’ इति पूर्ववत्प्रमाणं विज्ञेयम्। (वरुणः) विविधपाशैः शत्रूणां बन्धकः (वस्त) वस्ते आच्छादयति। अत्र वर्त्तमाने लङडभावश्च। (निर्णिजम्) शुद्धम् (परि) सर्वतोभावे (स्पशः) स्पर्शवन्तः पदार्थाः (नि) नितराम् (सेदिरे) सीदन्ति। अत्र लडर्थे लिट्॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वे मनुष्या यथा वायुर्बलकारित्वात् सर्वमग्न्यादिकं मूर्त्तामूर्तं वस्तु धृत्वाऽऽकाशे गमनागमने कुर्वन् गमयति। यथा सूर्य्यलोको प्रकाशस्वरूपत्वाद् रात्र्यन्धकारं निवार्य्य स्वतेजसा प्रकाशते, तथैव सुशिक्षाबलेन सर्वान् मनुष्यान् धृत्वा धर्मे गमनागमने कृत्वा कार्येरन्॥१३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Varuna, self-refulgent lord of the universe, wearing a golden mantle (as the sun) shines pure and shines all (covering them with the golden light of His purity). All the tangible objects of the world abide in Him.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The same subject is continued.

अन्वय:

(1) God! the most acceptable and the Best in whom all embodied beings and things abide, covers all from all sides, wearing the resplendent armour of knowledge. (2) In the case of the sun as Varuna, the meaning is the sun in whose light all substances that can be touched abide, wearing its golden amour or light, covers all objects with its splendor. (3) In the case of a hero the meaning will be - A hero who binds his enemies with various snares wearing a shining armour covers or overcomes un-righteous foes with his splendor. All substances abide in the light of his knowledge and justice.

पदार्थान्वयभाषाः - (द्रापिम् ) कवचं निद्रां वा अत्र दै-स्वप्ने अस्मादित्र वपादिभ्य इति इत् प्रत्ययः । = Armour or sleep of ignorance. ( हिरण्ययम् ) ज्योतिर्मयम् | ज्योतिर्वै हिरण्यम् (शतपथे ४.३.१.२१ )। = Full of light, shining.(वरुण:) विविधपाशै: शत्रूणां बन्धकः । = A hero who binds his enemies with snares. (वस्त) वस्ते आच्छादयति अत्र वर्तमाने लड् अडभावश्च ॥ = Eovers. (निर्णिजम्) शुद्धम् = Pure.(स्पश:) स्पर्शवन्तः पदार्थाः = Substances.
भावार्थभाषाः - There is Shleshalankar or Paronomasia in this Mantra. Omniscient God being the Innermost Spirit of all, revealing the pure light, dispels the sleep or ignorance of the righteous persons. In the same way; the sun dispels the darkness of the night. As God upholds all by His Omnipresence, the sun also sustains all by its attractive power.
टिप्पणी: (वस्ते ) आच्छादयति It is derived from वस-आच्छादने अदा = Vas to cover. (निर्णिजम् ) शुद्धम् = Pure. It is derived from णिजिर शौचपोषणयोः = To wash, to purify. (स्पश:) स्पर्शवन्तः पदार्थाः = Substances that can be touched, it is derived from स्पश-बाधन स्पर्शनयोः = To destroy, to touch. ( वरुण:) विविधपारौ शत्रूणां बंधक: = Here the word वरुण: is derived from वृञ-आवरणे चुरा० = To cover or bind.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसे वायू बलयुक्त असल्यामुळे अग्नी इत्यादी सर्व स्थूल व सूक्ष्म पदार्थांसह आकाशात गमन आगमन करीत असतो व जसे सूर्यही स्वतः प्रकाशरूप असल्यामुळे रात्रीला नष्ट करून आपल्या प्रकाशाने सर्वांना प्रकाशित करतो तसे विद्वान लोकांनीही विद्या व सुशिक्षणाच्या सामर्थ्याने सर्व माणसांना धारण करून धर्माने वागण्यास प्रवृत्त करून इतरांनाही तसे वागण्यास प्रवृत्त करावे. ॥ १३ ॥