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उ॒रुं हि राजा॒ वरु॑णश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uruṁ hi rājā varuṇaś cakāra sūryāya panthām anvetavā u | apade pādā pratidhātave kar utāpavaktā hṛdayāvidhaś cit ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒रुम्। हि। राजा॑। वरु॑णः। च॒कार॑। सूर्या॑य। पन्था॑म्। अनु॑ऽए॒त॒वै। ऊँ॒ इति॑। अ॒पदे॑। पादा॑। प्रति॑ऽधातवे। अ॒कः॒। उ॒त। अ॒प॒ऽव॒क्ता। हृ॒द॒य॒ऽविधः॑। चित्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में वरुण शब्द से आत्मा और वायु के गुणों का प्रकाश करते हैं-

पदार्थान्वयभाषाः - (चित्) जैसे (अपवक्ता) मिथ्यावादी छली दुष्ट स्वभावयुक्त पराये पदार्थ (हृदयाविधः) अन्याय से परपीड़ा करनेहारे शत्रु को दृढ़ बन्धनों से वश में रखते हैं, वैसे जो (वरुणः) (राजा) अतिश्रेष्ठ और प्रकाशमान परमेश्वर वा श्रेष्ठता और प्रकाश का हेतु वायु (सूर्याय) सूर्य के (अन्वेतवै) गमनागमन के लिये (उरुम्) विस्तारयुक्त (पन्थाम्) मार्ग को (चकार) सिद्ध करते (उत) और (अपदे) जिसके कुछ भी चाक्षुष चिह्न नहीं है, उस अन्तरिक्ष में (प्रतिधातवे) धारण करने के लिये सूर्य के (पादा) जिनसे जाना-आना बने, उन गमन और आगमन गुणों को (अकः) सिद्ध करते हैं (उ) और जो परमात्मा सब का धर्त्ता (हि) और वायु इस काम के सिद्ध कराने का हेतु है, उसकी सब मनुष्य उपासना और प्राण का उपयोग क्यों न करें॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जिस परमेश्वर ने निश्चय के साथ जिस सब से बड़े सूर्यलोक के लिये बड़ी-सी कक्षा अर्थात् उसके घूमने का मार्ग बनाया है, जो इसको वायुरूपी ईंधन से प्रदीप्त करता और जो सब लोक अन्तरिक्ष में अपनी-अपनी परिधियुक्त हैं कि किसी लोक का किसी लोकान्तर के साथ संग नहीं है, किन्तु सब अन्तरिक्ष में ठहरे हुए अपनी-अपनी परिधि पर चारों और घूमा करते हैं और जो आपस में जिस ईश्वर और वायु के आकर्षण और धारणशक्ति से अपनी-अपनी परिधि को छोड़कर इधर-उधर चलने को समर्थ नहीं हो सकते तथा जिस परमेश्वर और वायु के विना अन्य कोई भी इनका धारण करनेवाला नहीं है, जैसे परमेश्वर मिथ्यावादी अधर्म करनेवाले से पृथक् है, वैसे प्राण भी हृदय के विदीर्ण करनेवाले रोग से अलग है, उसकी उपासना वा कार्य्यों में योजना सब मनुष्य क्यों न करें॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हृदय रोगों का प्रतिकार [चिकित्सा]

पदार्थान्वयभाषाः - १. (राजा वरुणः) - उस नियामक वरुण ने (सूर्याय अन्वेतवा उ) - सूर्य के चलने के लिए (हि) - निश्चय से (उरुम्) - विशाल (पन्थाम्) - मार्ग को (चकार) - बनाया है । लगभग ६० करोड़ मील का यह मार्ग है जिसमें सूर्य गति करता है ।  २. (उ) - और (अपदे) - जहाँ पाँव रखने का स्थान नहीं है उस आकाश में (पादा प्रति धातवे) - पाँव को रखने के लिए (अकः) - उस प्रभु ने व्यवस्था की है और यह सूर्य जब इस (ज्योतिश्चक्र) - में अगला - अगला कदम रखता है तो उस दिन को हम लोक में संक्रान्ति कहते हैं ।  ३. (उत) - और यह सूर्य (हृदयाविधः) - हृदय को विद्ध करनेवाली बीमारियों को (चित्) - निश्चय से (अपवक्ता) - झिड़ककर दूर भगा देनेवाला है । सूर्याभिमुख होकर प्रभु का ध्यान करने से छाती पर पड़नेवाली सूर्य - किरणे हदय के सब रोगों को दूर करती हैं । 'उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निमरोचन् हन्तु रश्मिभिः।' उदय होता हुआ सूर्य कृमियों को नष्ट करता है और अस्त होता हुआ सूर्य भी रश्मियों से कृमियों को नष्ट करे । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु द्वारा आकाश में स्थापित सूर्य हृदय के रोगों को दूर करता है । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इदानीं वरुणशब्देनात्मवाय्वोर्गुणोपदेशः क्रियते।

अन्वय:

हृदयाविधोऽपवक्ताऽपवाचयिता शत्रुरस्ति तस्य चिदिव यौ वरुणौ राजा जगद्धाता जगदीश्वरो वायुर्वा सूर्याय सूर्यस्यान्वेतव उरुं पन्थां चकारोताप्यपदे पादा प्रतिधातवे सूर्य्यमक उ इति वितर्के सर्वस्यैतद्विधत्ते स सर्वैरुपासनीय उपयोजनीयो वास्तीति निश्चेतव्यम्॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उरुम्) विस्तीर्णम् (हि) चार्थे (राजा) प्रकाशमानः परमेश्वरः प्रकाशहेतुर्वा (वरुणः) वरः श्रेष्ठतमो जगदीश्वरो वरत्वहेतुर्वायुर्वा (चकार) कृतवान् (सूर्याय) सूर्यस्य। अत्र चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.३.६२) अनेन षष्ठीस्थाने चतुर्थी। (पन्थाम्) मार्गम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति नकारलोपः। (अनु) अनुकूलार्थे (एतवै) एतुं गन्तुम्। अत्रेण् धातोः कृत्यार्थे तवैके० अनेन तवै प्रत्ययः। (उ) वितर्के (अपदे) न विद्यन्ते पदानि चिह्नानि यस्मिन् तस्मिन्नन्तरिक्षे (पादा) पद्यन्ते गम्यन्ते याभ्यां गमनागमनाभ्यां तौ। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (प्रतिधातवे) प्रतिधातुम्। अत्र तुमर्थे सेसेन० अनेन तवेन्प्रत्ययः। (अकः) कृतवान्। अत्र मन्त्रे घसह्वरण० इति च्लेर्लुक्। (उत) अपि (अपवक्ता) विरुद्धवक्ता वाचयिता वाऽस्ति तस्य (हृदयाविधः) हृदयं विध्यति तस्याधर्मस्याधार्मिकस्य शत्रोर्वा। अत्र नहिवृतिवृषिव्यधिरुचिसहितनिषु क्वौ। (अष्टा०६.३.११६) अनेन दीर्घः। (चित्) इव॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यः परमेश्वरः खलु यस्य महतः सूर्यलोकस्य भ्रमणार्थं महतीं कक्षां निर्मितवान् यो वायुनेन्धनेन प्रदीप्यते, य इमे सर्वे लोका अन्तरिक्षपरिधयः सन्ति, न च कस्याचिल्लोकस्य केनचिल्लोकान्तरेण सह सङ्गोऽस्ति, किन्तु सर्वेऽन्तरिक्षस्थाः सन्तः स्वं स्वं परिधिं प्रति परिभ्रमन्त्येते सर्वे यस्येश्वरस्य वायोर्वाकर्षणधारणाभ्यां स्वं स्वं परिधिं विहायेतस्ततश्चलितुं न शक्नुवन्ति, नैव यस्मात् कश्चिदन्य एषां धर्तार्थोऽस्ति, यथा परमेश्वरोऽधार्मिकस्य वक्तुर्हृदयस्य विदारकोऽस्ति तथा प्राणोऽपि रोगाविष्टो हृदयस्य विदारकोऽस्ति, स सर्वैर्मनुष्यैः कथं नोपासनीय उपयोजनीयो भवेदिति बोध्यम्॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Varuna, ruling lord of the universe, carved out a wide path for the sun to move and thus created an orbit-path in the pathless space for His deputy wielder and sustainer of the sub-system, meticulously averting, as if, a pinhole in the heart of the cosmic system, like a surgeon.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Now by the term Varuna, the attributes of God and the air are taught.

अन्वय:

(1) The Resplendent God who is the Sustainer of the world hath made a spacious pathway, for the sun where with to travel on its axis, even in the middle region where there was no path. He made it to set its footstep. He is the piercer of the heart of an unrighteous person. He is therefore to be adored by all. Men should know this certainly.

भावार्थभाषाः - God has fixed up its own axis for the great sun to move about and it (sun) is illuminated by the air. All these different worlds move about at their own axis. It is by God's sustaining Power along with attraction of the air that these worlds do not go away from their axis and there is none else who is the Upholder of these worlds than God. As God is the piercer of the heart of an un-righteous person, in the same manner, Prana also is the piercer of the heart of a person suffering from some terrible fatal discase. Hence why should He (God) not be worshipped by all and why should not be the Prana (or vital wealth) utilized properly and methodically for attaining long life and health. (हृदयाविधचित्) हृदयं विध्यति तस्य अधार्मिकस्य शत्रोर्वा Pierces the heart of an un-righteous person or of the enemy.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. ज्या परमेश्वराने मोठ्या सूर्यलोकासाठी मोठी कक्षा अर्थात त्याचा फिरण्याचा मार्ग बनविलेला आहे. त्याला तो वायुरूपी इंधनाने प्रदीप्त करतो व जे गोल अंतरिक्षात आपापल्या परिधीत असतात त्यांची कोणत्याही दुसऱ्या गोलाबरोबर संगती नसते. ते सर्व अंतरिक्षात असून आपापल्या परिधीमध्ये भ्रमण करतात. ईश्वर व वायूच्या आकर्षण धारणशक्तीने इकडे तिकडे जाऊ शकत नाहीत. परमेश्वर व वायूशिवाय त्यांना इतर कोणी धारण करणारे नाहीत. परमेश्वर जसा मिथ्यावादी अधार्मिक असणाऱ्यांपासून पृथक आहे तसा प्राणही हृदयाला विदीर्ण करणाऱ्या रोगांपासून वेगळा आहे. त्यासाठी परमेश्वराची उपासना किंवा प्राण यांचे कार्यामध्ये संप्रयोजन का करू नये? ॥ ८ ॥