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अ॒बु॒ध्ने राजा॒ वरु॑णो॒ वन॑स्यो॒र्ध्वं स्तूपं॑ ददते पू॒तद॑क्षः। नी॒चीनाः॑ स्थुरु॒परि॑ बु॒ध्न ए॑षाम॒स्मे अ॒न्तर्निहि॑ताः के॒तवः॑ स्युः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abudhne rājā varuṇo vanasyordhvaṁ stūpaṁ dadate pūtadakṣaḥ | nīcīnāḥ sthur upari budhna eṣām asme antar nihitāḥ ketavaḥ syuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒बु॒ध्ने। राजा॑। वरु॑णः। वन॑स्य। ऊ॒र्ध्वम्। स्तूप॑म्। द॒द॒ते॒। पू॒तऽद॑क्षः। नी॒चीनाः॑। स्थुः॒। उ॒परि॑। बु॒ध्नः। ए॒षा॒म्। अ॒स्मे इति॑। अ॒न्तः। निऽहि॑ताः। के॒तवः॑। स्यु॒रिति॑ स्युः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:24» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में वायु और सविता के गुण प्रकाशित करते हैं-

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जो (पूतदक्षः) पवित्र बलवाला (राजा) प्रकाशमान (वरुणः) श्रेष्ठ जलसमूह वा सूर्य्यलोक (अबुध्ने) अन्तरिक्ष से पृथक् असदृश्य बड़े आकाश में (वनस्य) जो कि व्यवहारों के सेवने योग्य संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उस पर (स्तूपम्) अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है, जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः) किरणें (एषाम्) इन संसार के पदार्थों (उपरि) पर (स्थुः) ठहरती हैं (अन्तर्हिताः) जो उनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ (स्युः) हैं और जो (केतवः) किरणें वा प्रज्ञान (अस्मे) हम लोगों में (निहिताः) स्थिर (स्युः) होते हैं, उनको यथावत् जानो॥७॥
भावार्थभाषाः - जिससे यह सूर्य्य रूप के न होने से अन्तरिक्ष का प्रकाश नहीं कर सकता, इससे जो ऊपरली वा बिचली किरणें हैं, वे ही मेघ की निमित्त हैं, जो उनमें जल के परमाणु रहते तो हैं, परन्तु वे अतिसूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। इसी प्रकार वायु अग्नि और पृथिवी आदि के भी अतिसूक्ष्म अवयव अन्तरिक्ष में रहते तो अवश्य हैं, परन्तु वे भी दृष्टिगोचर नहीं होते॥७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु का विद्युद्दीप - सूर्य

पदार्थान्वयभाषाः - १. वह (राजा) - सारे संसार को व्यवस्था में चलानेवाला (पूतदक्षः) - पवित्र बलवाला अथवा हमारे बलों को पवित्र करनेवाला (वरुणः) - सबका नियामक प्रभु (अबुध्ने) - मूलरहित अन्तरिक्ष प्रदेश में (वनस्य) - वननीय तेज के सेवन के योग्य रश्मियों के (स्तूपम्) - संघभूत सूर्य को धारण करता है ।  २. इस सूर्य की रश्मियों (नीचीनाः) - [वि अञ्चन्ति] नीचे की ओर आनेवाली होकर (स्थुः) - उस सूर्य में ठहरती हैं । (एषाम्) - इनका (बुध्नः) - मूल (उपरि) - ऊपर है । ऊपर से जैसे कोई विद्युद्दीप [Torch] के प्रकाश को नीचे की ओर छोड़े उसी प्रकार यह सूर्य प्रभु की Torch [विद्युदीप] ही तो है । प्रभु इससे किरणों को नीचे इस पृथिवीलोक पर छोड़ता है ।  ३. छोड़ता इसलिए है कि (अस्मे अन्तः) - हमारे अन्दर (केतवः) - [प्रज्ञापकाः प्राणाः, सा०] प्रकाश की किरणें व प्राणदायी तत्त्व , रोगनाशक तत्त्व (निहिताः स्युः) - स्थापित हों । सूर्यकिरणें केवल प्रकाश प्राप्त कराएँ , ऐसी बात नहीं है , ये किरणें हमारे अन्दर प्राणदायी तत्त्वों को भी स्थापित करती हैं । वस्तुतः सूर्य तो है ही प्राण - 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।' तेल मलकर सूर्य - किरणों में बैठा जाए तो सारी त्वचा के साथ - साथ 'विटामिन डी' पैदा हो जाता है । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सूर्य भी एक अद्भुत वस्तु है । यह प्रभु का मानो विद्युदीप है । इसकी किरणें नीचे आ रही हैं । ये हमें प्रकाश व प्राणशक्ति प्राप्त कराती हैं । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वायुसवितृगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यः पूतदक्षो राजा वरुणो जलसमूहस्सविता वा बुध्ने वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते यस्य नीचीनाः केतव एषामुपरि स्थुस्तिष्ठन्ति पदान्तर्निहिता आप स्युस्सन्ति यदन्तःस्थो बुध्नश्च ते केतवोऽस्मेऽस्मास्वन्तर्निहिताश्च भवन्तीति विजानीत॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अबुध्ने) अन्तरिक्षासादृश्ये स्थूलपदार्थे। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति। (निरु०१०.४४) (राजा) यो राजते प्रकाशते। अत्र कनिन्युवृषितक्षि० (उणा०१.१५४) अनेन कनिन्प्रत्ययः। (वरुणः) श्रेष्ठः (वनस्य) वननीयस्य संसारस्य (ऊर्ध्वम्) उपरि (स्तूपम्) किरणसमूहम्। स्तूपः स्त्यायतेः संघातः। (निरु०१०.३३) (ददते) ददाति (पूतदक्षः) पूतं पवित्रं दक्षो बलं यस्य सः (नीचीनाः) अर्वाचीना अधस्थाः (स्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडर्थे लुङडभावश्च। (उपरि) ऊर्ध्वम् (बुध्नः) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः। बुध्न इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (एषाम्) जगत्स्थानां पदार्थानाम् (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग्० इति सप्तमीस्थाने शे आदेशः। (अन्तः) मध्ये (निहिताः) स्थिताः (केतवः) किरणाः प्रज्ञानानि वा (स्युः) सन्ति। अत्र लडर्थे लिङ्॥७॥
भावार्थभाषाः - न चैवायं सूर्य्यो रूपरहितेनान्तरिक्षं प्रकाशयितुं शक्नोति तस्माद्यान्यस्योपर्य्यधःस्थानि ज्योतींषि सन्ति, तान्येव मेघस्य निमित्तानि ये जलपरमाणवः किरणस्थाः सन्ति, यथा नैव तेऽतीन्द्रियत्वाद् दृश्यन्त एवं वाय्वग्निपृथिव्यादीनामपि सूक्ष्मा अवयवा अन्तरिक्षस्था वर्त्तमाना अपि न दृश्यन्त इति॥७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The ruling lord Varuna, the brilliant sun, pure and generous, radiates a flood of light in the bottomless astral sphere over the atmosphere, flowing down, the rays of light stop over the atmosphere and filter down to the clouds and impregnate them over the earth. May the rays of the sun, the clouds and the vapours absorbed in the clouds be for our good.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Now the attributes of वायु (air ) and Savita (sun) are taught.

अन्वय:

O men you should know that the shining sun of pure vigor abiding in baseless firmament sustains on high a heap of light, the rays of which are pointed down wards while their base is above. There are waters below. May the rays of the sun become concentrated in us as the source of healthy existence. May we use the heat of the sun properly in order to keep ourselves healthy.

पदार्थान्वयभाषाः - THE COMMENTATOR'S NOTES (अबुध्ने ) अन्तरिक्षसदृशे स्थूलपदार्थे बुध्नमन्तरिक्ष भवति बद्धा अस्मिन् धृता आप इति (निरुक्ते १०.४४ ) (राजा ) यो राजते प्रकाशते अत्र कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्वि द्युप्रतिदिव: (उणा० १.१५४ ) अनेन कनिन् प्रत्ययः ॥ = Shining. (राज-दीप्तौ ) (वनस्य ) वननीयस्य संसारस्य ( स्तूपम् ) किरणसमूहम् । स्तूपः स्त्यायतेः संवात: (निरु० १०.३३ ) = Group of Rays. (बुधा) बद्धा आपो यस्मिन् स बुध्नो मेघः (बुध्नइति मेघनामसु ) (निघ० १.१२ = Cloud. (केतव:) किरणा: प्रज्ञानानि वा = The rays or signs. (केतुरितिप्रज्ञानाम निघ० ३.९ )
भावार्थभाषाः - It is the rays of the sun that are above and below that are the cause of the creation of the cloud. The particles of water in the rays are not visible on account of their subtleness. In the same manner, the subtle particles of the air, fire and earth etc. are not visible, even though they are in the firmament.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हा सूर्य नसता तर अंतरिक्ष प्रकाशित होऊ शकले नसते. त्यासाठी वरचे व मधले किरणच मेघाचे निमित्त असतात. त्यांच्यात जलाचे परमाणू असतात; परंतु अतिसूक्ष्मतेमुळे ते दृष्टिगोचर होत नाहीत. याचप्रमाणे वायू, अग्नी व पृथ्वी इत्यादींचेही अतिसूक्ष्म अवयव अंतरिक्षात असतात, परंतु ते दृष्टिगोचर होत नाहीत. ॥ ७ ॥