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वरु॑णः प्रावि॒ता भु॑वन्मि॒त्रो विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑। कर॑तां नः सु॒राध॑सः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

varuṇaḥ prāvitā bhuvan mitro viśvābhir ūtibhiḥ | karatāṁ naḥ surādhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वरु॑णः। प्र॒ऽअ॒वि॒ता। भु॒व॒त्। मि॒त्रः। विश्वा॑भिः। ऊ॒तिऽभिः॑। कर॑ताम्। नः॒। सु॒ऽराध॑सः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे यह अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ (वरुणः) बाहर वा भीतर रहनेवाला वायु (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षा आदि निमित्तों से सब प्राणि या पदार्थों को करके (प्राविता) सुख प्राप्त करनेवाला (भुवत्) होता है (मित्रश्च) और सूर्य्य भी जो (नः) हम लोगों को (सुराधसः) सुन्दर विद्या और चक्रवर्त्ति राज्यसम्बन्धी धनयुक्त (करताम्) करते हैं, जैसे विद्वान् लोग इन से बहुत कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे हम लोग भी इसी प्रकार इन का सेवन क्यों न करें॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसलिये इन उक्त वायु और सूर्य के आश्रय करके सब पदार्थों के रक्षा आदि व्यवहार सिद्ध होते हैं, इसलिये विद्वान् लोग भी इनसे बहुत कार्य्यों को सिद्ध करके उत्तम-उत्तम धनों को प्राप्त होते हैं॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अद्वेष व स्नेह

पदार्थान्वयभाषाः - १. (वरुणः) - द्वेष - निवारण का देवता , अद्वेष की भावना (प्राविता) - प्रकर्षण रक्षक (भुवत्) - हो , अर्थात् इस जीवन - यज्ञ में द्वेष से ऊपर उठकर हम अपनी शक्तियों का रक्षण करनेवाले बने , द्वेषाग्नि में हम जलते न रहें ।  २. (मित्रः) - स्नेह का देवता , सबके प्रति स्नेह की भावना (विश्वाभिः ऊतिभिः) - सब प्रकार के रक्षणों के द्वारा हमें सुरक्षित करे । स्नेह के कारण शक्ति का वर्धन होता है । अद्वेष से शक्ति नष्ट नहीं होती , स्नेह से वह शक्ति बढ़ती है । इस प्रकार से वरुण व मित्र अद्वेष व स्नेह (नः) - हमें (सुराधसः) उत्तम सम्पत्तियोंवाले अथवा उत्तम सफलताओंवाले (करताम्) - करें । इस संसार में द्वेष से ऊपर उठकर स्नेह से बरतते हुए ही हम उत्तम साफल्य को प्राप्त कर सकते हैं । मनुजी ने 'शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह' - 'सुखे वैर और विवाद को किसी के साथ न करें इन शब्दों में ऐहिक व आमुष्मिक उन्नति के सुन्दर सूत्र का संकेत किया है । 'अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम' इस वैदिक सूक्ति में भी यही कहा है कि 'संसार में किसी से द्वेष न करो' । हीन स्थितिवाले पर भी करुणा ही करनी है , क्रूरदृष्टि नहीं । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम अद्वेष व स्नेह को अपनाकर अपनी शक्तियों का रक्षण करें और उत्तम साफल्य को सिद्ध करें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यथायं सुयुक्त्या सेवितो वरुणो विश्वाभिरूतिभिः सर्वैः पदार्थैः प्राविता भुवत् भवति मित्रश्च यौ नोस्मान् सुराधसः करताम् कुरुतस्तस्मादेतावस्माभिरप्येवं कथं न परिचर्य्यौ वर्त्तेते॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुणः) बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः (प्राविता) सुखप्रापकः (भुवत्) भवति। अत्र लडर्थे लेट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि। (अष्टा०७.३.८८) अनेन गुणनिषेधः। (मित्रः) सूर्य्यः। अत्र अमिचिमिश० (उणा०४.१६८) अनेन क्त्रः प्रत्ययः। (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षणादिभिः कर्मभिः (करताम्) कुरुतः। अत्रापि लडर्थे लोट्। विकरणव्यत्ययश्च। (नः) अस्मान् (सुराधसः) शोभनानि विद्याचक्रवर्त्तिराज्यसंम्बन्धीनि राधांसि धनानि येषां तानेवं भूतान्॥६॥
भावार्थभाषाः - यस्मादेतयोः सकाशेन सर्वेषां पदार्थानां क्षणादयो व्यवहारास्सम्भवन्त्यस्माद्विद्वांस एनाभ्यां बहूनि कार्याणि संसाध्योत्तमानि धनानि प्राप्नुवन्तीति॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Varuna is breath of air, and Mitra, light of the sun, with energies and all the vitalities and immunities of human life and prosperity. May they both help us rise to the noblest wealth of body, mind and soul.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे, जसे वायू व सूर्याच्या आश्रयाने सर्व पदार्थांचे रक्षण इत्यादी व्यवहार सिद्ध होतात तसेच विद्वान लोकही त्यांच्याकडून पुष्कळ कार्य सिद्ध करून धन प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥