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इ॒न्द्र॒वा॒यू म॑नो॒जुवा॒ विप्रा॑ हवन्त ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्रा॒क्षा धि॒यस्पती॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indravāyū manojuvā viprā havanta ūtaye | sahasrākṣā dhiyas patī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑। म॒नः॒ऽजुवा॑। विप्राः॑। ह॒व॒न्ते॒। ऊ॒तये॑। स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षा। धि॒यः। पती॒ इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (विप्राः) विद्वान् लोग (ऊतये) क्रियासिद्धि की इच्छा के लिये जो (सहस्राक्षा) जिन से असंख्यात अक्ष अर्थात् इन्द्रियवत् साधन सिद्ध होते (धियः) शिल्प कर्म के (पती) पालने और (मनोजुवा) मन के समान वेगवाले हैं, उन (इन्द्रवायू) विद्युत् और पवन को (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, उनके जानने की इच्छा अन्य लोग भी क्यों न करें॥३॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को उचित है कि शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये असंख्यात व्यवहारों को सिद्ध करानेवाले वेग आदि गुणयुक्त बिजुली और वायु के गुणों की क्रियासिद्धि के लिये अच्छे प्रकार सिद्धि करनी चाहिये॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान व ज्ञानपूर्वक कार्य

पदार्थान्वयभाषाः - १. (विप्रा) - विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले मेधावी लोग (मनोजुवा) - मन के समान वेगवाले अथवा मन को सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाले (इन्द्रवायू) - इन्द्र और वायुदेव को (ऊतये) - रक्षा के लिए (हवन्ते) - पुकारते हैं । इन्द्र और वायु के पुकारने का अभिप्राय है - 'जितेन्द्रिय व क्रियाशील' बनने का निश्चय व दृढ़ संकल्प । ये दोनों भावनाएँ मनुष्य को सदा उत्तम मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती हैं । इनके कारण मनुष्य आलस्य से शून्य तथा अत्यन्त वेगसम्पन्न बना रहता है ।  २. ये इन्द्र और वायु (सहस्त्राक्षा) - अनन्त आँखोंवाले , अर्थात् अत्यधिक ज्ञानवाले तथा (धियस्पती) - ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के पति हैं । जितेन्द्रियता ज्ञानवृद्धि का कारण बनती है और वायु की आराधना मनुष्य को सदा कर्मों में व्याप्त रहने का उपदेश करती है । 'इन्द्र' का उपासक मूर्ख नहीं होता तथा वायु का आराधक अकर्मण्य नहीं हो सकता । ये ज्ञान और कर्म हमारा पूरण करते हैं , हमें विप्र बनाते हैं । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम इन्द्र और वायु के उपासक बनकर अत्यधिक ज्ञानवाले व ज्ञानपूर्वक कर्मों को करनेवाले बनें । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।

अन्वय:

विप्रा ऊतये यौ सहस्राक्षौ धियस्पती मनोजुवान्द्रिवायू हवन्ते, तौ कथं नान्यैरपि जिज्ञासितव्यौ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रवायू) विद्युत्पवनौ (मनोजुवा) यौ मनोवद्वेगेन जवेते। तौ अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः क्विप् च इति क्विप् प्रत्ययः। (विप्राः) विद्वांसः (हवन्ते) गृह्णन्ति। व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (ऊतये) क्रियासिद्धीच्छायै (सहस्राक्षा) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि साधनानि याभ्यां तौ (धियः) शिल्पकर्मणः (पती) पालयितारौ। अत्र षष्ठ्याः पति पु० (अष्टा०८.३.५३) अनेन विसर्जनीयस्य सकारादेशः॥३॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिः शिल्पविद्यासिद्धये असंख्यातव्यवहारहेतू वेगादिगुणयुक्तौ विद्युद्वायू संसाध्याविति॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For the protection and progress of the world in a state of peace and happiness, scholars of vision and piety invoke Indra and Vayu, divine energies of wind and electricity, which move at the speed of the mind, and which are givers of a thousand powers of sensitivity and promoters of human intelligence and its creations.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी शिल्पविद्येच्या सिद्धीसाठी असंख्य व्यवहार सिद्ध करणाऱ्या वेग इत्यादी गुणांनी युक्त विद्युत व वायूच्या गुणांना चांगल्या प्रकारे सिद्ध केले पाहिजे. ॥ ३ ॥