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ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा। क्रतुं॑ बृ॒हन्त॑माशाथे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtena mitrāvaruṇāv ṛtāvṛdhāv ṛtaspṛśā | kratum bṛhantam āśāthe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तेन॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। ऋ॒ता॒ऽवृ॒धौ॒। ऋ॒त॒ऽस्पृ॒शा॒। क्रतु॑म्। बृ॒हन्त॑म्। आ॒शा॒थे॒ इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:2» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:1» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस हेतु से ये दोनों सामर्थ्यवाले हैं, यह विद्या अगले मन्त्र में कही है-

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतेन) सत्यस्वरूप ब्रह्म के नियम में बंधे हुए (ऋतावृधौ) ब्रह्मज्ञान बढ़ाने, जल के खींचने और वर्षानेवाले (ऋतस्पृशा) ब्रह्म की प्राप्ति कराने में निमित्त तथा उचित समय पर जलवृष्टि के करनेवाले (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्त मित्र और वरुण (बृहन्तम्) अनेक प्रकार के (क्रतुम्) जगद्रूप यज्ञ को (आशाथे) व्याप्त होते हैं॥८॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर के आश्रय से उक्त मित्र और वरुण ब्रह्मज्ञान के बढ़ानेवाले, जल वर्षानेवाले, सब मूर्त्तिमान् वा अमूर्तिमान् जगत् को व्याप्त होकर उसकी वृद्धि विनाश और व्यवहारों की सिद्धि करने में हेतु होते हैं॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ऋत का वर्धन

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के (मित्रावरुणौ) - मित्र व वरुण , स्नेह व निर्द्वेषता हमारे जीवन में (ऋतेन) -  ऋत के साथ (बृहन्तं क्रतुम्) - वृद्धि के कारणभूत उत्तम कार्यों व संकल्पों को (आशाथे) - व्याप्त करते हैं । ऋत का अभिप्राय इंग्लिश के राइट [right] शब्द से आया है । 'ठीक' व ऋत वही है जो उचित स्थान में किया जाए , अतः अभिप्राय यह हुआ कि स्नेह व द्वेषाभाव के न होने पर हममें ऋत की वृद्धि होती है , हम प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर ही करते हैं और इसके साथ हमारे सब कार्य वृद्धि के कारणभूत होते हैं । २. वस्तुतः ये मित्र और वरुण देव हैं ही (ऋतावृधी) - ऋत का सदा वर्धन करनेवाले तथा (ऋतस्पृशौ) - ऋतयुक्त कार्यों का ही स्पर्श करनेवाले । स्नेह व निर्द्वेषता के होने पर 'अनृत' का सम्भव ही नहीं रहता , हमारे सब कार्यों में ऋत का समावेश हो जाता है । अनृत कार्यों में संकुचितता है , ऋत के कार्यों में विशालता । 'अनृत' के साथ अपवित्रता व ह्रास का सम्बन्ध है तथा ऋत पवित्र व उन्नतिशील है । ऋतवाले कार्य सदा वृद्धि के कारण बनते हैं ।      
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम मित्र व वरुण की आराधना द्वारा ऋतयुक्त कार्यों को करते हुए वर्धमान हों , सदा वृद्धि को प्राप्त करते चलें ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

केनैतावेतत्कर्म कर्त्तुं समर्थौ भवत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

ऋतेनोत्पादितावृतावृधावृतस्पृशौ मित्रावरुणौ बृहन्तं क्रतुमाशाथे॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतेन) सत्यस्वरूपेण ब्रह्मणा। ऋतमिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) अनेनेश्वरस्य ग्रहणम्। ऋतमित्युदकनामसु च। (निघं०१.१२) (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ। देवताद्वन्द्वे च। (अष्टा०६.३.२५) अनेनानङादेशः। (ऋतावृधौ) ऋतं ब्रह्म तेन वर्धयितारौ ज्ञापकौ जलाकर्षणवृष्टिनिमित्ते वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (ऋतस्पृशा) ऋतस्य ब्रह्मणो वेदस्य स्पर्शयितारौ प्रापकौ जलस्य च (क्रतुम्) सर्वं सङ्गतं संसाराख्यं यज्ञम्। (बृहन्तम्) महान्तम् (आशाथे) व्याप्नुतः। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। (अष्टा०३.४.६) इति वर्त्तमाने लिट्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुडभावः॥८॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मसहचर्य्ययैतौ ब्रह्मज्ञाननिमित्ते जलवृष्टिहेतू भूत्वा सर्वमग्न्यादिमूर्त्तामूर्त्तं जगद्व्याप्य वृद्धिक्षयकर्त्तारौ व्यवहारविद्यासाधकौ च भवत इति॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - By virtue of the divine law, Mitra and Varuna, sun and pranic energy, both extend the operation of the natural law of cosmic evolution and inspire the human intelligence to reach unto divine realisation. They both pervade and energize the mighty yajna of the expanding universe.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

Above mentioned Mitra and Varuna are created by God who is absolute Truth. They are augmenters of truth and water and causes of establishing contact with God, Veda and the water. They pervade this vast Yajna in the form of the universe.

पदार्थान्वयभाषाः - ऋतमिति सत्यनामसु (निघण्टु ३ १०) ऋतमिति उदकनामसु च (निघण्टु १. १२ )
भावार्थभाषाः - These Mitra and Varuna pervade the universe consisting of fire, and other embodied or un-embodied suitable elements along with God who is the Controller of the whole world. It is they that are instrumental in the growth and decay and the accomplishment of all practical dealings.
टिप्पणी: The Devata or the subject matter of these three (7-9) Mantras is मित्रावरुणौ which stand for various objects from spiritual, social, scientific and cosmic point of view). According to the Brahmanas. प्राणापानौ मित्रावरुणौ ॥ ताण्ड्य ० ६.१०. ५, ९ ८-१६ प्राणोवैमित्रोऽपानौ वरुण:। शत ८.४.२.६ प्राणोदानो मित्रावरुणौ ॥ शत०३ २.२.१३ अहोरात्रौ वै मित्रावरुणौ ॥ शत० ३.२.२.१३ अहवै मित्रो रात्रिर्वरुणः ॥ ऐतरेय ५.१० वाहूवैमित्रावरुणौ ॥ शत० ५.४.१.१५
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराच्या आश्रयाने वरील मित्र (सूर्य) व वरुण (वायू) ब्रह्मज्ञानाचे निमित्त, जलाचा वर्षाव करणारे, सर्व प्रकट व अप्रकट जगाला व्याप्त करून त्याची वृद्धी, विनाश व व्यवहाराची सिद्धी करण्याचे हेतू असतात. ॥ ८ ॥