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यो रे॒वान्यो अ॑मीव॒हा व॑सु॒वित्पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo revān yo amīvahā vasuvit puṣṭivardhanaḥ | sa naḥ siṣaktu yas turaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। रे॒वान्। यः। अ॒मी॒व॒ऽहा। व॒सु॒ऽवित्। पु॒ष्टि॒ऽवर्ध॑नः। सः। नः॒। सि॒स॒क्तु॒। यः। तु॒रः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:18» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि अनन्त धनवाला, (यः) जो (पुष्टिवर्धनः) शरीर और आत्मा की पुष्टि बढ़ाने तथा (वसुवित्) सब पदार्थों का जानने (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाश करने तथा (यः) जो (तुरः) शीघ्र सुख करनेवाला वेद का स्वामी जगदीश्वर है, (सः) सो (नः) हम लोगों को विद्या आदि धनों के साथ (सिषक्तु) अच्छी प्रकार संयुक्त करे॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सत्यभाषण आदि नियमों से संयुक्त ईश्वर की आज्ञा का अनुष्ठान करते हैं, वे अविद्या आदि रोगों से रहित और शरीर वा आत्मा की पुष्टिवाले होकर चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन तथा सब रोगों की हरनेवाली ओषधियों को प्राप्त होते हैं॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

रेवान् , अमीवहा , वसुविन् - पुष्टिवर्धन व तुर [आचार्य]

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के ब्रह्मणस्पति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि - (यः) - जो (रेवान्) - धनवाला है , अर्थात् निर्धनता के कष्ट से पीड़ित नहीं , जिसके सामने सदा आर्थिक समस्या उपस्थित नहीं रहती , क्योंकि उस अवस्था में उसका ध्यान आर्थिक समस्या को सुलझाने में ही रहेगा , न कि पढ़ाने की ओर ।  २. (यः) - जो (अमीवहा) - रोगों को नष्ट करनेवाला है , अर्थात् जिसका शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं । रोगों से आक्रान्त शरीरवाला आचार्य न तो नियमित रूप से ज्ञान ही दे सकता है और न विद्यार्थियों के स्वास्थ्य को ठीक रख सकता है ।  ३. (वसुवित्) - निवास के लिए आवश्यक सब तत्वों को जिसने प्राप्त किया हुआ है , अतएव (पुष्टिवर्धनः) - शरीर , मन व मस्तिष्क के पोषण को बढ़ानेवाला है ।  ४. (सः) - ऐसा आचार्य (नः) - हमें (सिषक्त) - प्राप्त हो , (यः) - जोकि (तुरः) - हमारी सब कमियों को दूर करनेवाला है [तुवि हिंसायाम्] अथवा जो [तुर त्वरणे] शीघ्रता से सब कार्यों को करनेवाला है । 
भावार्थभाषाः - भावार्थ - आचार्य वही उत्तम है जोकि निर्धनता से पीड़ित नहीं , स्वस्थ है , निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त किये हुए है , शरीर , मन व मस्तिष्क की पुष्टि करनेवाला तथा आलस्यशून्य है । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यो रेवान् यः पुष्टिवर्धनो यो वसुविदमीवहा यस्तुरो ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरोऽस्ति, स नोऽस्मान् विद्यादिधनैः सह सिषक्तु अतिशयेन संयोजयतु॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जगदीश्वरः (रेवान्) विद्याद्यनन्तधनवान्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। रयेर्मतौ बहुलं सम्प्रसारणम्। (अष्टा०६.१.३७) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणम्। छन्दसीरः। (अष्टा०८.२.१५) इति मकारस्य वकारः। (यः) सर्वरोगरहितः (अमीवहा) अविद्यादिरोगाणां हन्ता (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि वेत्ति (पुष्टिवर्धनः) यः शरीरात्मनोः पुष्टिं वर्धयतीति (सः) ईश्वरः (नः) अस्मान् (सिषक्तु) अतिशयेन सचयतु। अत्र ‘सच’धातोः बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः। (यः) शीघ्रं सुखकारी (तुरः) तुरतीति। तुर त्वरणे इत्यस्मादृगुपधत्वात्कः॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सत्यभाषणादिलक्षणामीश्वराज्ञामनुतिष्ठन्ति तेऽविद्यादिरोगरहिताः शरीरात्मपुष्टिमन्तः सन्तश्चक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि सर्वरोगहराण्यौषधानि च प्राप्नुवन्तीति॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The Lord Supreme that is lord of universal wealth and knowledge, destroyer of evil and disease, absolute master of the Vasus, prime cause of creation and evolution, power of instant action and beneficence, may He, we pray, bless us with the knowledge and wealth of the world.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सत्यभाषण इत्यादी नियमांनी ईश्वराचे अनुष्ठान करतात ती अविद्या इत्यादी रोगांनी रहित होऊन शरीर आणि आत्मा यांची पुष्टी करून चक्रवर्ती राज्य इत्यादी धन तसेच सर्व रोगांना नष्ट करणारी औषधी प्राप्त करतात. ॥ २ ॥