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ए॒ष व॒: स्तोमो॑ मरुत इ॒यं गीर्मा॑न्दा॒र्यस्य॑ मा॒न्यस्य॑ का॒रोः। एषा या॑सीष्ट त॒न्वे॑ व॒यां वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣa vaḥ stomo maruta iyaṁ gīr māndāryasya mānyasya kāroḥ | eṣā yāsīṣṭa tanve vayāṁ vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षः। वः॒। स्तोमः॑। म॒रु॒तः॒। इ॒यम्। गीः। मा॒न्दा॒र्यस्य॑। मा॒न्यस्य॑। का॒रोः। आ। इषा। या॒सी॒ष्ट॒। त॒न्वे॑। व॒याम्। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१६७.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:167» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) विद्वानो ! (एषः) यह (वः) तुम्हारी (स्तोमः) स्तुति और (मान्दार्यस्य) आनन्द के देनेवाले उत्तम (मान्यस्य) मान सत्कार करने योग्य (कारोः) सबका सुख करनेवाले सज्जन की (इयम्) यह (गीः) वेदविद्या की उत्तम शिक्षा से युक्त वाणी है इसकी जो (इषा) इच्छा के साथ (आ, यासीष्ट) प्राप्ति हो (वयाम्) हम लोग (तन्वे) शरीर के लिये उस (इषम्) इच्छा (जीरदानुम्) जीवन के निमित्त और (वृजनम्) बल को (विद्याम) जानें ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - जो सबसे प्रशंसा करने योग्य गुणों को प्राप्त होकर आप्त धर्मात्मा सज्जनों का सत्कार कर शरीर और आत्मा के बल के लिये विद्या और पराक्रम सम्पादन करते हैं, वे सुख से जीते हैं ॥ ११ ॥इस सूक्त में वायु के दृष्टान्त से सज्जन विद्वान् जनों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह एकसौ सरसठवाँ सूक्त और पाँचवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'मान्दार्य, मान्य, कारु' का स्तवन

पदार्थान्वयभाषाः - इस मन्त्र की व्याख्या १६५।१५ पर द्रष्टव्य है ।
अन्य संदर्भ: विशेष- इस सूक्त का मुख्य विषय यही है कि प्रभु के रक्षणों को प्राप्त करके हम शक्तिशाली बनें (१), तथा शत्रुओं का विजय करके प्रभु के प्रिय बनें (१०) । अगले सूक्त का विषय भी यही है -
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मरुतो एष वः स्तोमो मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोरियङ्गीरस्ति। तस्या येषाऽऽयासीष्ट वयां तन्वे तामिषं जीरदानुं वृजनं च विद्याम ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) (वः) युष्माकम् (स्तोमः) स्तवनम् (मरुतः) विद्वांसः (इयम्) (गीः) वेदविद्याशिक्षायुक्ता वाणी (मान्दार्यस्य) आनन्दप्रदोत्तमस्य (मान्यस्य) सत्कर्त्तुं योग्यस्य (कारोः) सर्वस्य सुखकर्त्तुः (आ) समन्तात् (इषा) इच्छया (यासीष्ट) प्राप्नुयात् (तन्वे) शरीराय (वयाम्) वयम् (विद्याम) विजानीयाम (इषम्) (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) जीवननिमित्तम् ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - ये विश्वतः श्लाघ्यान् गुणान् प्राप्याप्तानां सत्कारं कृत्वा शरीरात्मबलाय विद्यापराक्रमौ सञ्चिन्वन्ति ते सुखेन जीवन्ति ॥ ११ ॥अत्र वायुदृष्टान्तेन सज्जनगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति सप्तषष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Maruts, this is your song of celebration, this is the voice of the happy and honoured poet artist. May it reach you for the manifestation of your image and action for us. And may we, we pray, achieve food and energy, advancement in action and the joy of life.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The path of delight is open to those who respect learned.

अन्वय:

O great scholars! we praise you. It is the cultured and refined speech of an admirable person, because he is the best to shower the bliss and is benefactor of men. Let this message reach each one of you for the welfare of your own men. May we obtain earnestly good food, strength and long life.

भावार्थभाषाः - Those persons live happily who inculcate noble virtues, honor absolutely truthful and enlightened persons and acquire knowledge and vigor for their spiritual and physical strength.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे सर्वांनी प्रशंसा करण्यायोग्य गुणांना प्राप्त करतात, आप्त धर्मात्मा सज्जनांचा सत्कार करतात. शरीर व आत्मा यांचे बल वाढविण्यासाठी विद्या व पराक्रम संपादन करतात ते सुखाने जगतात. ॥ ११ ॥