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पञ्च॑पादं पि॒तरं॒ द्वाद॑शाकृतिं दि॒व आ॑हु॒: परे॒ अर्धे॑ पुरी॒षिण॑म्। अथे॒मे अ॒न्य उप॑रे विचक्ष॒णं स॒प्तच॑क्रे॒ षळ॑र आहु॒रर्पि॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pañcapādam pitaraṁ dvādaśākṛtiṁ diva āhuḥ pare ardhe purīṣiṇam | atheme anya upare vicakṣaṇaṁ saptacakre ṣaḻara āhur arpitam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पञ्च॑ऽपादम्। पि॒तर॑म्। द्वाद॑शऽआकृतिम्। दि॒वः। आ॒हुः॒। परे॑। अर्धे॑। पु॒री॒षिण॑म्। अथ॑। इ॒मे। अ॒न्ये। उप॑रे। वि॒ऽच॒क्ष॒णम्। स॒प्तऽच॑क्रे। षट्ऽअ॑रे। आ॒हुः॒। अर्पि॑तम् ॥ १.१६४.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:12 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (पञ्चपादम्) क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर, दिवस, पक्ष, ये पाँच पग जिसके (पितरम्) पिता के तुल्य पालना करानेवाले (द्वादशाकृतिम्) बारह महीने जिसका आकार (पुरीषिणम्) और मिले हुए पदार्थों की प्राप्ति वा हिंसा करानेवाले अर्थात् उनकी मिलावट को अलग अलग करानेहारे संवत्सर को (दिवः) प्रकाशमान सूर्य के (परे) परले (अर्द्धे) आधे भाग में विद्वान् (आहुः) कहते हैं बताते हैं (अथ) इसके अनन्तर (इमे) ये (अन्ये) और विद्वान् जन (षडरे) जिसमें छः ऋतु आरारूप और (सप्तचक्रे) सात चक्र घूमने की परिधि विद्यमान उस (उपरे) मेघमण्डल में (विचक्षणम्) वाणी के विषय को (अर्पितम्) स्थापित (आहुः) कहते हैं, उसको जानो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम इस मन्त्र में काल के अवयव कहने को अभीष्ट हैं जिस विभु एक रस सनातन काल में समस्त जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयान्त लब्ध होता है, उसके सूक्ष्मत्व से उस काल का बोध कठिन है, इससे प्रयत्न से जानो ॥ १२ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

कालचक्र

पदार्थान्वयभाषाः - १. यह कालचक्र (पञ्चपादम्) = पाँच पादवाला है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन – ये पाँच कर्म ही इसकी गति के द्योतक हैं। क्रिया की गति ही काल के रूप में नापी जाती है। क्रिया समाप्त और काल भी समाप्त । (पितरम्) = भूत, भव्य सभी को जन्म देनेवाला होने से यह काल सबका पिता है। (द्वादशाकृतिम्) = यह बारह मासरूपी आकृतियोंवाला है। इस द्वादशाकृति काल में वह आकृति भी आती है जब सूर्य की तीव्र किरणों से पृथिवीस्थ समुद्र वाष्पीभूत होकर अन्तरिक्षस्थ समुद्र के रूप में परिणत हो जाता है, अतः इस काल को (दिवः परे अर्धे) = द्युलोक के उत्कृष्ट स्थान में (पुरीषिणम्) = जलवाला (आहुः) = कहते हैं। जब यह काल आता है तब ग्रीष्म के घर्म से आर्त प्राणियों को आनन्दित करता है। २. इसी काल का वर्णन (अथ इमे अन्ये) = अब ये दूसरे (विद्वान् आहुः) = इस रूप में भी कहते हैं कि (विचक्षणम्) = अपनी हजारों आँखों से देखनेवाला यह काल (सप्तचक्रे) = सात चक्रों और (षट्) = अरे छह अरोंवाले (उपरे) = [उपरमन्ते अस्मिन् प्राणिनः, उपरताः प्राणिनोऽत्र इति वा] प्राणियों के उपरमण [enjoyment] व उपराम- दीर्घ विश्राम के स्थानभूत इस (संवत्सर) = वर्ष में (अर्पितम्) = अर्पित हैं। यह वर्ष सप्तचक्र है । सप्ताह के सात दिन सात चक्र हैं और छह ऋतुएँ छह अरे हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - पाँच पाद और बारह आकृतियोंवाला, आकाश के ऊपरी अर्ध भाग से पृथिवी का पोषण करनेवाला काल पिता कहलाता है। इसी काल को सात चक्र और छह अरों से युक्त भी कहा जाता है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृतिं पुरीषिणं दिवः परेऽर्द्धे विद्वांस आहुः। अथेमेऽन्ये विद्वांसः षडरे सप्तचक्रे उपरे विचक्षणमर्पितमाहुस्तं विजानीत ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पञ्चपादम्) पञ्च क्षणमूहूर्त्तप्रहरदिवसपक्षाः पादा यस्य तं संवत्सरं सूर्यं वा (पितरम्) पितृवत्पालननिमित्तम् (द्वादशाकृतिम्) द्वादश मासा आकृतिर्यस्य तम् (दिवः) प्रकाशमानस्य (आहुः) कथयन्ति (परे) (अर्द्धे) (पुरीषिणम्) पुराणां सहितानां पदार्थानामीषितारम् (अथ) (इमे) (अन्ये) अन्ये पदार्थाः (उपरे) मेघमण्डले (विचक्षणम्) वाग्विषयम् (सप्तचक्रे) सप्तविधानि चक्राणि भ्रमणपरिधयो यस्मिंस्तस्मिन् (षळरे) षट् ऋतवोऽरा यस्मिंस्तस्मिन् (आहुः) कथयन्ति (अर्पितम्) स्थापितम् ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यूयमत्र कालस्याऽवयवा विवक्षिता यत्र विभौ नित्येऽनन्ते काले सर्वं जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयान्तं लभ्यते तस्य सूक्ष्मत्वात् कालस्य बोधः कठिनोऽस्ति तस्मादेतं प्रयत्नेन विजानीत ॥ १२ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Father time, they say, has five stages from the initial moment onward and twelve divisions in the round of the year of time extending over existence in the farther half of the universe beyond the region of light. These others speak of this other half visible this side above, below the sun, which has six spokes of the seasons in the yearly round and moves in seven rounds of wheels, wheel within wheel of time.$(This concept of time space requires deep research into the nature and passage of time including the technique of measurement and calculation with reference to the visible world and the world beyond on the other side of the sun. Parardha, the other half, for example, is equal to 50 years of Brahma, his one day being equal to the age of the current world of existence. It is a mind boggling concept in ordinary terms of calculation.)
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The cycle of time is again treated here.

अन्वय:

Learned wisemen! tell all that this Time is protector of all like a father. It has five feet (legs) known as kshana (a twinkling of eye), muhurta (a moment), prahara (1/8 of a day or 3 hrs.), divasa (day) and paksha (fortnight). It has twelve forms (months) and is in upper one-half of this solar world. But some other learned persons tell that other objects are dependent upon the circle of clouds. It has seven circumferences and six spokes in the form of six seasons. It has been mentioned in the Vedas as wonderful and miraculous.

भावार्थभाषाः - O men ! it is difficult to acquire thorough knowledge of the Time which is eternal and infinite and on which the creation, sustenance and dissolution of the world are set. Therefore, you should try to receive this knowledge with great accuracy.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! या मंत्रात काळाच्या अवयवाचे यथार्थ वर्णन केलेले आहे. (क्षण, मुहूर्त, प्रहर, दिवस, पक्ष, महिने, संवत्सर इत्यादी) ज्या विभू एकरस सनातन काळात संपूर्ण जगाची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय होतो त्या काळाचा सूक्ष्मतेने बोध होणे कठीण आहे म्हणून त्याला प्रयत्नपूर्वक जाणा. ॥ १२ ॥