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न मा॑ गरन्न॒द्यो॑ मा॒तृत॑मा दा॒सा यदीं॒ सुस॑मुब्धम॒वाधु॑:। शिरो॒ यद॑स्य त्रैत॒नो वि॒तक्ष॑त्स्व॒यं दा॒स उरो॒ अंसा॒वपि॑ ग्ध ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na mā garan nadyo mātṛtamā dāsā yad īṁ susamubdham avādhuḥ | śiro yad asya traitano vitakṣat svayaṁ dāsa uro aṁsāv api gdha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। मा॒। ग॒र॒न्। न॒द्यः॑। मा॒तृऽत॑माः। दा॒साः। यत्। ई॒म्। सुऽस॑मुब्धम्। अ॒व॒ऽअधुः॑। शिरः॑। यत्। अ॒स्य॒। त्रै॒त॒नः। वि॒ऽतक्ष॑त्। स्व॒यम्। दा॒सः। उरः॑। अंसौ॑। अपि॑। ग्धेति॑ ग्ध ॥ १.१५८.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:158» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (दासाः) सुख देनेवाले दास जन (सुसमुब्धम्) अति सूधे स्वभाववाले (यत्) जिस मुझे (ईम्) सब ओर से (अबाधुः) पीड़ित करें उस (मा) मुझे (मातृतमाः) माताओं के समान मान करने-करानेवाली (नद्यः) नदियाँ (न) न (गरन्) निगलें न गलावें, (यत्) जो (त्रैतनः) तीन अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सुखों का विस्तार करनेवाला (दासः) सेवक (अस्य) इस मेरे (शिरः) शिर को (वितक्षत्) विविध प्रकार की पीड़ा देवे वह (स्वयम्) आप अपने (उरः) वक्षःस्थल और (अंसौ) स्कन्धों को (अपि, ग्ध) काटे ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि ऐसा प्रयत्न करें जिससे नदी और समुद्र आदि न डुबा मारें। शूद्र आदि दास जनसेवा करने पर नियत हुआ भी आलस्यवश अति सूधे स्वभाववाले स्वामी को पीड़ा दिया करता अर्थात् उनका काम मन से नहीं करता, इससे उसको अच्छी शिक्षा देवे और अनुचित करने में ताड़ना भी दे तथा अपने अपने शरीर के अङ्गों की सदा पुष्टि करें ॥ ५ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

त्रैतन

पदार्थान्वयभाषाः - १. (मा) = मुझे (नद्यः) = ये विषयों के जल [नदनात्] (न गरन्) = निगल न जाएँ । (मातृतमाः) = ये मेरे जीवन को उत्तम बनानेवाले हों। प्रभु ने इनका निर्माण पतन के लिए न करके उत्थान के लिए ही तो किया है। (दासा:) = मेरा उपक्षय करनेवाली [दसु उपक्षये] इन वासनाओं ने (यत्) = जो (ईम्) = निश्चय से (सुसमुब्धम्) = [संकुचितसर्वाङ्गम् - सा०] संकुचित सब अङ्गोंवाले मुझको (अव अधुः) = नीचे स्थापित कर दिया है। वासनाओं के कारण मेरे सब अङ्गों की शक्तियाँ संकुचित हो गई हैं और मेरा पतन हो गया है। २. इस दास- इस विनाश करनेवाली वासना का (यत् शिरः) = जो सिर है उसे (त्रैतन:) = [त्रि-तन्] 'ज्ञान, कर्म व उपासना ' – इन तीनों का विस्तार करनेवाला ही (वितक्षत्) = विशेषरूप से काटनेवाला होता है। मेरे त्रैतन बनने पर (दास:) = यह क्षय करनेवाली वासना (स्वयम्) = अपने-आप ही जहाँ अपने सिर को विदीर्ण करे वहाँ (उरः) = अपनी छाती को और (अंसौ अपि) = अपने कन्धों को भी (ग्ध) = विदीर्ण करनेवाली हो [ग्ध हन्तेर्लुङि रूपम् - सा०] जब मैं ज्ञान, कर्म और उपासना का विस्तार करूँ, उस समय मेरे ज्ञान-विस्तार से इस वासना का शिरच्छेद हो जाए। मेरे कर्म-विस्तार से इसके कन्धे विदीर्ण हो जाएँ और उपासना के विस्तार से इसका उरो विदारण हो जाए। इस प्रकार त्रैतन बनकर मैं वासना का समूलोन्मूलन करनेवाला बनूँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ने विषयों को उन्नति-साधन के लिए बनाया है। इनमें फँसकर हम अपना नाश कर बैठते हैं। हम त्रैतन बनें और वासना का उन्मूलन करके विषयों का यथायोग करते हुए उन्नत हों ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो दासाः सुममुब्धं यन्मामीमवाधुस्तं मा मातृतमा नद्यो न गरन्। यद्यस्त्रैतनो दासोऽस्य मम शिरो वितक्षत् स स्वयं उरो अंसावपि ग्ध ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (मा) माम् (गरन्) निगलेयुः (नद्यः) सरितः (मातृतमाः) अतिशयेन मातर इव वर्त्तमानाः (दासाः) सुखप्रदाः (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (सुसमुब्धम्) सुष्ठुसम्यगृजुम् (अबाधुः) अधो धरन्तु (शिरः) (यत्) यः (अस्य) (त्रैतनः) यस्त्रीणि शरीरात्ममनोजानि सुखानि तनोति स एव (वितक्षत्) तक्षतु (स्वयम्) (दासः) सेवकः (उरः) वक्षःस्थलम् (अंसौ) भुजमूले (अपि) (ग्ध) हन्तु। हन्तेर्लुङि छान्दसमेतत् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरेवं प्रयतितव्यं यतो नदीसमुद्रा न निमज्जयेयुः। दासः शूद्रादिः सेवायां नियुक्तोऽप्यतिसरलस्वभावं पुरुषमालस्येन पीडयति ततस्तं सुशिक्षेतानुचितत्वे ताडयेच्च। स्वशरीराङ्गानि सदा पोषणीयानि च ॥ ५ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let the streams be most motherly and kind saviours to me, simple, natural and unhurtful person as I am. Let not the streams swallow me even if savages were to throw me down into the water. If a thrice torturous person were to try to cut the head of such a person, then may the evil intentioned person cut his own torso and his own shoulders.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Guidelines about behavior with a servant imparted.

अन्वय:

O learned persons ! if servants who are supposed to serve and give me happiness, annoy me though I am of a very simple fair and straightforward nature, let them not put me into embarrassment. Let not the mother-like rivers harm me in any way. If a servant creates trouble for me by being disobedient and unruly, he may hurt or harm himself in his chest and shoulders, because of his sinful act.

भावार्थभाषाः - Men should endeavor in such a manner by practice of swimming and building embankments, that the river and sea may not drown one. Sometimes, a servant also troubles a man of very upright nature by being indolent. On such occasions, he should be given proper instructions and be even punished when be behaves improperly or impolitely. One should always strengthen one's limbs.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी असा प्रयत्न केला पाहिजे की ज्यामुळे नदी व समुद्रात बुडता कामा नये. सरळमार्गी मालकास सेवेसाठी नेमलेला शूद्र दास आळशीपणाने त्रास देतो अर्थात मनापासून काम करीत नाही. त्यासाठी त्याला चांगले शिक्षण द्यावे व अनुचित वागल्यास ताडनाही करावी, तसेच शरीराच्या अवयवांना पुष्ट करावे. ॥ ५ ॥