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अश्वि॑ना॒ पिब॑तं॒ मधु॒ दीद्य॑ग्नी शुचिव्रता। ऋ॒तुना॑ यज्ञवाहसा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aśvinā pibatam madhu dīdyagnī śucivratā | ṛtunā yajñavāhasā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अश्वि॑ना। पिब॑तम्। मधु॑। दीद्य॑ग्नी॒ इति॒ दीदि॑ऽअग्नी। शु॒चि॒ऽव्र॒ता॒। ऋ॒तुना॑। य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒सा॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:15» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ऋतुओं के साथ में सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! तुमको जो (शुचिव्रता) पदार्थों की शुद्धि करने (यज्ञवाहसा) होम किये हुए पदार्थों को प्राप्त कराने तथा (दीद्यग्नी) प्रकाशहेतुरूप अग्निवाले (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा (मधु) मधुर रस को (पिबतम्) पीते हैं, जो (ऋतुना) ऋतुओं के साथ रसों को प्राप्त करते हैं, उनको यथावत् जानो॥११॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदेश करता है कि मैंने जो सूर्य्य चन्द्रमा तथा इस प्रकार मिले हुए अन्य भी दो-दो पदार्थ कार्यों की सिद्धि के लिये संयुक्त किये हैं, हे मनुष्यो ! तुम अच्छी प्रकार सब ऋतुओं के सुख तथा व्यवहार की सिद्धि को प्राप्त करते हो, इनको सब लोग समझें॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अश्विनीदेवों का मधुपान

पदार्थान्वयभाषाः - १. गतमन्त्र के अनुसार हम तुरीय ब्रह्म का उपासन करनेवाले हों । होंगे तब जबकि हम यौवन में ही सोम को सुरक्षित करनेवाले बनेंगे । इस सोमरक्षण के लिए मुख्य साधन प्राणायाम है , अतः यह प्राणसाधना करनेवाला प्रार्थना करता है कि (अश्विना) - हे प्राणापानो! (मधु पिबतम्) - आप सब अन्नों के सारभूत इस सोम का पान करो । जैसे शहद सब पुष्परसों का सारभूत होता है , वैसे ही यह सोम सब खाये गये भोजनों का साररूप है । प्राणसाधना से इसकी शरीर में ऊर्ध्वगति होती है ।  २. इस सोम की ऊर्ध्वगति के द्वारा ये प्राणापान (दीद्यग्नी) - ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले होते हैं । ज्ञानाग्नि का ईंधन यह सोम ही तो है ।  ३. इन सोमकणों के द्वारा ही ये प्राणापान (शुचिवता) - पवित्र व्रतोंवाले होते हैं । सोम का संयम होने पर अशुभ वासनाएँ विनष्ट हो जाती हैं , मन की मैल दूर हो जाती और यह संयमी पुरुष लोकहित की पवित्र भावनाओं को लेकर जीवन में चलता है एवं पवित्र व्रतोंवाला होता है ।  ४. इस प्रकार है प्राणापानो! आप मेरे जीवन में (ऋतुना) - समय से , अर्थात् यौवन में ही (यज्ञवाहसा) - यज्ञों का धारण करनेवाले होते हो । 'मुझे धर्म की रुचि बुढ़ापे में ही प्राप्त हो' - सो नहीं । यदि ऐसा होता तब तो मेरी कितनी दयनीय स्थिति होती , चूँकि जब शक्ति थी तब धर्मरुचि नहीं थी और अब धर्मरुचि आई तो शक्ति नहीं रही । ये प्राणापान सोम के संयम द्वारा मेरे यौवन में ही यज्ञों का प्रणयन करनेवाले होते हैं ।     
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राण-साधना से सोम का संयम होने पर मेरे मस्तिष्क में दीप्त ज्ञानाग्नि होती है । मेरे हृदय में पवित्र व्रत होते हैं और मेरे हाथ यज्ञों का वहन करनेवाले । 
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्य्याचन्द्रमसोर्ऋतुयोगे गुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यूयं यौ शुचिव्रता यज्ञवाहसा दीद्यग्नी अश्विनौ मधु पिबतं पिबत ऋतुना ऋतुभिः सह रसान् गमयतस्तौ विजानीत॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसौ। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः सर्वत्र। (पिबतम्) पिबतः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (मधु) मधुरं रसम् (दीद्यग्नी) दीदिर्दीप्तिहेतुरग्निर्ययोस्तौ (शुचिव्रता) शुचिः पवित्रकरं व्रतं शीलं ययोस्तौ (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञवाहसा) यज्ञान् हुतद्रव्यान् वहतः प्रापयतस्तौ॥११॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदिशति-मया यौ सूर्य्याचन्द्रमसावित्यादिसंयुक्तौ द्वौ द्वौ पदार्थौ कार्य्यसिद्ध्यर्थमीश्वरेण संयोजितौ, हे मनुष्या ! युष्माभिस्तौ सम्यक् सर्वर्त्तुकं सुखं व्यवहारसिद्धिं च प्रापयत इति बोध्यम्॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Ashvins, twin powers of sun and moon, earth and heaven, night and day, vested with light and fire, committed to purification, carriers of the fragrance of yajna, create and receive the honey-sweets of yajna according to the seasons.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

Now the attributes of the sun and the moon in conjunction with different seasons are taught in the eleventh Mantra.

अन्वय:

O learned persons, you should know the sun and the moon, whose acts are pure, which are bright with flames and rays, which cause us attain the oblations put in the Yajnas (non-violent sacrifices) and which drink the sweet sap with seasons.

भावार्थभाषाः - God says, the pairs like the sun and the moon which I have made for the accomplishment of various works, cause the attainment of happiness in all seasons and acquisition of perfection in dealings.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदेश करतो की मी जे सूर्य, चंद्र व या प्रकारे इतरही दोन दोन पदार्थ कार्याच्या सिद्धीसाठी संयुक्त केलेले आहेत, हे माणसांनो! तुम्ही चांगल्या प्रकारे सर्व ऋतूंचे सुख व व्यवहाराची सिद्धी प्राप्त करता ते सर्वांनी समजून घ्यावे. ॥ ११ ॥