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आद॑स्य॒ ते ध्व॒सय॑न्तो॒ वृथे॑रते कृ॒ष्णमभ्वं॒ महि॒ वर्प॒: करि॑क्रतः। यत्सीं॑ म॒हीम॒वनिं॒ प्राभि मर्मृ॑शदभिश्व॒सन्त्स्त॒नय॒न्नेति॒ नान॑दत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ād asya te dhvasayanto vṛtherate kṛṣṇam abhvam mahi varpaḥ karikrataḥ | yat sīm mahīm avanim prābhi marmṛśad abhiśvasan stanayann eti nānadat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आत्। अ॒स्य॒। ते। ध्व॒सय॑न्तः। वृथा॑। ई॒र॒ते॒। कृ॒ष्णम्। अभ्व॑म्। महि॑। वर्पः॑। करि॑क्रतः। यत्। सी॒म्। म॒हीम्। अ॒वनि॑म्। प्र। अ॒भि। मर्मृ॑शत्। अ॒भि॒ऽश्व॒सन्। स्त॒नयन्। एति॑। नान॑दत् ॥ १.१४०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:140» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (कृष्णम्) काले वर्ण के (अभ्वम्) न होनेवाले (महि) बड़े (वर्पः) रूप को (ध्वसयन्तः) विनाश करते हुए से (करिक्रतः) अत्यन्त कार्य करनेवाले जन (वृथा) मिथ्या (प्रेरते) प्रेरणा करते हैं (ते) वे (अस्य) इस मोक्ष की प्राप्ति को नहीं योग्य हैं जो (महीम्) बड़ी (अवनिम्) पृथिवी को (अभि, मर्मृशत्) सब ओर से अत्यन्त सहता (अभिश्वसन्) सब ओर से श्वास लेता (नानदत्) अत्यन्त बोलता और (स्तनयन्) बिजुली के समान गर्जना करता हुआ अच्छे गुणों को (सीम्) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है (आत्) इसके अनन्तर वह मुक्ति को प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य इस संसार में शरीर का आश्रय कर अधर्म करते हैं, वे दृढ़ बन्धन को पाते हैं और जो शास्त्रों को पढ़, योगाभ्यास कर, धर्म का अनुष्ठान करते, उन्हीं की मुक्ति होती है ॥ ५ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सच्चा कर्मयोगी

पदार्थान्वयभाषाः - १. (आत्) = अब अस्य इस परमात्मा के (ते) = वे उपासक (ध्वसयन्तः) = सब वासनाओं का ध्वंस करते हुए वृथा कर्मफल का आश्रय न करके, केवल कर्तव्य भावना से ही (ईरते) = गति करते हैं। इनके सभी कर्म किसी भी प्रकार के स्वार्थ को लिये हुए नहीं होते। ये उपासक (अभ्वम्) = महान् (कृष्णम्) = संयम को तथा (महि वर्पः) = प्रशंसनीय तेजस्वी रूप को (करिक्रतः) = [कुर्वन्तः - सा०] करते हुए होते हैं। इन उपासकों का जीवन महान् संयमवाला होता है, परिणामतः तेजस्विता को लिये हुए होता है। २. (यत्) = जब (सीम्) = निश्चय से यह उपासक (महीम्) = इस महान् (अवनिम्) = पृथिवी के (प्र अभि मर्मृशत्) = [अभिमृश् to come in contact with] प्रकर्षेण सम्पर्क में आता है, अर्थात् इस पृथिवी को ही परिवार बना लेता है-'वसुधैव कुटुम्बकम्', तब यह (अभिश्वसन्) = इहलोक और परलोक दोनों के लिए जीता हुआ- केवल ऐहिक आनन्द को ही अपना ध्येय न बनाकर चलता हुआ (स्तनयन् एति) = चारों ओर ज्ञान के शब्दों का उच्चारण करता हुआ चलता है। यह (नानदत्) = खूब ही स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ एति गतिमय जीवनवाला होता है। प्रभु-उपासक सारी पृथिवी के हित के कार्यों में प्रवृत्त होता है, निजू जीवन का सुख उसका ध्येय नहीं होता। यह ज्ञान का प्रसार करता है, स्तोत्रों का उच्चारण करता है। वस्तुतः ये स्तोत्र ही इसे शक्ति देनेवाले होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के उपासक सच्चे कर्मयोगी होते हैं। ये सारी पृथिवी को ही अपना परिवार समझते हैं, ज्ञान का प्रसार करते हैं, स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यद्ये कृष्णमभ्वं महि वर्पो ध्वसयन्तः करिक्रतो वृथा प्रेरते तेऽस्य मोक्षस्य प्राप्तिं नार्हन्ति यो महीमवनिमभिमर्मृशदभिश्वसन् नानदत् स्तनयन् शुभान् गुणान् सीमेति आत् स मुक्तिमाप्नोति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आत्) आनन्तर्ये (अस्य) (ते) (ध्वसयन्तः) ध्वसमिवाचरन्तः (वृथा) मिथ्या (ईरते) (कृष्णम्) वर्णम् (अभ्वम्) अभवन्तम् (महि) महत् (वर्पः) (करिक्रतः) येऽतिशयेन कुर्वन्ति (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (महीम्) महतीम् (अवनिम्) पृथिवीम् (प्र) (अभि) (मर्मृशत्) अतिशयेन सहमानः (अभिश्वसन्) सर्वतः श्वसन्प्राणं धरन् (स्तनयन्) विद्युदिव शब्दयन् (एति) गच्छति (नानदत्) अतिशयेन नादं कुर्वन् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या इह शरीरमवलम्ब्याधर्ममाचरन्ति ते दृढं बन्धमाप्नुवन्ति ये च शास्त्राण्यधीत्य योगमभ्यस्य धर्ममनुतिष्ठन्ते तेषामेव मुक्तिर्जायत इति ॥ ५ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When this Agni, mighty hero of light and power, goes forward blowing, roaring, thundering and striking, covering and vitalising this great earth all round, then those warriors of his, men of action, advance at will destroying the monstrous ways of darkness and creating mighty forms of life and social structure.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The path of final emancipation (MOKSHA ) is underlined here.

अन्वय:

Persons not serious for attaining the emancipation but trying to create gloom everywhere place themselves in false and vain activities. But one who faces all challenges, he deservedly attains salvation. Such a person works hard with necessary breath-taking (Pranayama) exercises. Such a person thunders like the lightning and roars aloud during his preaching of the eternal message of the Vedas.

भावार्थभाषाः - The persons with sins in their records are born and reborn in bondage. But those who study the Shastras, practice Yoga and observe the rules of Dharma (righteousness) attain emancipation.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे या जगात शरीराद्वारे अधर्म करतात ती दृढ बंधनात अडकतात व जी शास्त्र वाचून योगाभ्यास करून धर्माचे अनुष्ठान करतात त्यांनाच मुक्ती मिळते. ॥ ५ ॥