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तुभ्या॒यं सोम॒: परि॑पूतो॒ अद्रि॑भिः स्पा॒र्हा वसा॑न॒: परि॒ कोश॑मर्षति शु॒क्रा वसा॑नो अर्षति। तवा॒यं भा॒ग आ॒युषु॒ सोमो॑ दे॒वेषु॑ हूयते। वह॑ वायो नि॒युतो॑ याह्यस्म॒युर्जु॑षा॒णो या॑ह्यस्म॒युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tubhyāyaṁ somaḥ paripūto adribhiḥ spārhā vasānaḥ pari kośam arṣati śukrā vasāno arṣati | tavāyam bhāga āyuṣu somo deveṣu hūyate | vaha vāyo niyuto yāhy asmayur juṣāṇo yāhy asmayuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तुभ्य॑। अ॒यम्। सोमः॑। परि॑ऽपूतः। अद्रि॑ऽभिः। स्पा॒र्हा। वसा॑नः। परि॑। कोश॑म्। अ॒र्ष॒ति॒। शु॒क्रा। वसा॑नः। अ॒र्ष॒ति॒। तव॑। अ॒यम्। भा॒गः। आ॒युषु॑। सोमः॑। दे॒वेषु॑। हू॒य॒ते॒। वह॑। वा॒यो॒ इति॑। नि॒ऽयुतः॑। या॒हि॒। अ॒स्म॒ऽयुः। जु॒षा॒णः। या॒हि॒। अ॒स्म॒ऽयुः ॥ १.१३५.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:135» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करके क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वायो) विद्वान् ! आप (नियुतः) कला कौशल से नियत किये हुए घोड़ों को जैसे पवन वैसे अपने यानों को एक देश से दूसरे देश को (वह) पहुँचाओ और (जुषाणः) प्रसन्नचित्त (अस्मयुः) मेरे समान आचरण करते हुए (याहि) पहुँचो (अस्मयुः) मेरे समान आचरण करते हुए आओ जिस (तव) आपका (अयम्) यह (आयुषु) जीवनों और (देवेषु) विद्वानों में (सोमः) ओषधिगण के समान (भागः) सेवन करने योग्य भाग है वा जो आप (हूयते) स्तुति किये जाते हैं सो (वसानः) वस्त्र आदि ओढ़े हुए (शुक्रा) शुद्ध व्यवहारों को (अर्षति) प्राप्त होते हैं जो (अयम्) यह (अद्रिभिः) मेघों से (परिपूतः) सब ओर से पवित्र हुआ (सोमः) चन्द्रमा के समान प्रशंसा किया जाता वा (कोशम्) मेघ को (पर्य्यर्षति) सब ओर से प्राप्त होता उसके समान (स्पार्हा) चाहे हुए वस्त्रों को (वसानः) धारण किये हुए आप प्राप्त होवें, उन (तुभ्य) आपके लिये उक्त सब वस्तु प्राप्त हों ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रशंसित कपड़े-गहने पहिने हुए सुन्दर रूपवान् अच्छे आचरण करते हैं, वे सर्वत्र प्रशंसा को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्पृहणीय धनों व दीप्तियोंवाला 'सोम'

पदार्थान्वयभाषाः - १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वायो) = गतिशील जीव ! (अयं सोमः) = यह सोम (तुभ्य) = तेरे लिए उत्पन्न किया गया है। यह (अद्रिभिः) = [आद्रियन्ते इति अद्रय: = those who adore] प्रभु के उपासकों से (परिपूतः) = पवित्र किया जाता है। उपासना से हमारी वृत्ति वैषयिक नहीं बनती और वासनाओं से ऊपर उठे रहने के कारण यह सोमशक्ति पवित्र बनी रहती है। यह पवित्र सोम (स्पार्हा) = स्पृहणीय स्वास्थ्यादि धनों को (वसानः) = धारण करता हुआ (कोशम्) = अन्नमयादि कोशों को (परि अर्षति) = प्राप्त होता है। यह कोशों में तेजस्वितादि प्राप्त कराता है। यह सोम (शुक्रा) = सब
भावार्थभाषाः - कोशों की दीप्तियों को (वसानः) = धारण करता हुआ अर्षति गति करता है। २. हे जीव ! (तव) = तेरा (अयम्) = यह (भागः) = सेवनीय अंश है [भज सेवायाम्] (आयुषु) = गतिशील पुरुषों में (देवेषु) = दिव्यगुणों की वृद्धि के निमित्त (सोमः हूयते) = इस सोम की आहुति दी जाती है। इस सोम के शरीर में सुरक्षित करने से दिव्यगुणों का वर्धन होता है। हे जीव! (नियुतः) = इन्द्रियरूप अश्वों को वह शरीररूप रथ में जोतकर चलनेवाला बन [हाँकनेवाला बन] । (अस्मयुः) = हमारी- प्रभु प्राप्ति की कामना से (याहि) = गतिवाला हो तेरा लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति हो। (जुषाणः) = अत्यन्त प्रीति से इस सोम का सेवन करता हुआ तू (अस्मयुः) = हमारी प्रभु प्राप्ति की कामना से याहि गतिमय बन ।
अन्य संदर्भ: भावार्थ - प्रभु कहते हैं कि हे जीव! तू सोम का रक्षण कर यह तेरे सारे कोशों को स्वास्थ्यादि से दीप्त करेगा। यह तुझमें दिव्यगुणों का वर्धन करता हुआ तुझे मुझ तक पहुँचानेवाला होगा।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कृत्वा किं प्राप्तव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे वायो त्वं नियुतः पवन इव स्वयानानि देशान्तरं वह जुषाणोऽस्मयुर्याहि। अस्मयुस्सन्नायाहि यस्य तवायमायुषु देवेषु सोमो भागोऽस्ति यो भवान् हूयते स वसानः सन् शुक्राऽर्षति योऽयमद्रिभिः परिपूतः सोमो हूयते कोशं पर्य्यर्षति तद्वत्स्पार्हा वसानस्त्वं याहि तस्य तुभ्य तत्सर्वमाप्नोतु ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुभ्य) तुभ्यम्। अत्र छान्दसो वर्णलोप इति मकारलोपः। (अयम्) सोमः ओषधिगण इव (परिपूतः) सर्वतः पवित्रः (अद्रिभिः) मेघैः (स्पार्हा) ईप्सितव्यानि वस्त्राणि (वसानः) आच्छादयन् (परि) (कोशम्) मेघम् (अर्षति) गच्छति (शुक्रा) शुद्धानि (वसानः) धरन् (अर्षति) प्राप्नुयात्। ऋ धातोर्लेट्प्रयोगोऽयम्। (तव) (अयम्) (भागः) भजनीयः (आयुषु) जीवनेषु (सोमः) चन्द्र इव (देवेषु) विद्वत्सु (हूयते) स्तूयते (वह) (वायो) पवन इव (नियुतः) नियुक्तानश्वान् (याहि) (अस्मयुः) अहमिवाचरन् (जुषाणः) प्रीतः (याहि) (अस्मयुः) ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रशस्तवस्त्राभरणवेशाः शुभमाचरन्ति ते सर्वत्र प्रशंसां प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For you does this soma distilled and purified with soma-stones and filters, seasoned by clouds, coveted and brilliant, over flows the jar. Pure, brilliant and exciting, it flows and overflows. This soma share of yours, delightful and exciting, is loved and honoured among the youth and learned divines. For this you are invoked and invited. Go, with love, your chariot driven by the team of horses impetuous as the winds, come for us and take your share of the beauty and ecstasy of life.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should men attain by doing what is told in the second Mantra.

अन्वय:

O learned person who art benevolent like the air, harness thy horses like the air and take thy chariot to distant places well-disposed towards and loving us come to us and go wherever you desire. Thou who hast among ordinary men as well as enlightened persons a venerable band of divine virtues and who art therefore invoked by all, putting on pure decent clean clothes, do always noble deeds and be like the Soma plant that is clothed with admirable splendor. produced by the clouds and purified. He attains God who is the treasure of all good virtues and showerer of peace and Bliss like the cloud.

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्रिभिः) मेघैः = By the clouds (कोशम् ) मेघम् = The cloud. (भागः ) भजनीयः = Venerable.
भावार्थभाषाः - Those men who put on decent clean dress and ornaments and perform good actions are admired every where.
टिप्पणी: अद्रिरिति मेघनाम ( निघ० १.१० ) कोश इति मेघनाम ( निघ० १.१० ) In the spiritual sense, the word कोश can be used for God who is the Treasure or Repository of all Divine virtues and showerer of Peace and Bliss like the Cloud (of the water).
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे चांगली वस्त्रे व अलंकार घालून चांगले वर्तन करतात. ती सर्वत्र प्रशंसेस पात्र होतात. ॥ २ ॥