दैव्या होतारा [प्राणापान]
पदार्थान्वयभाषाः - १. ऐतरेय २ । ४ में "प्राणापानौ वा दैव्या होतारः" इन शब्दों में प्राणापान को 'दैव्य होता' कहा है । ये उस देव - प्रभु की प्राप्ति के साधक हैं अतः 'दैव्य' हैं , ये अधिक - से - अधिक दानपूर्वक अदन करनेवाले हैं सो होता हैं । शरीर में प्राणापान के द्वारा ही सब अन्न का ग्रहण होता है तथा इस अन्न का पाचन भी प्राणापान से युक्त वैश्वानर अग्नि [जठराग्नि] करती है - 'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः , प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ ' परन्तु प्राणापान इससे उत्पन्न धातुओं का अंग - प्रत्यंग के पोषण के लिए दान कर देते हैं । स्वयं तो ये प्राणापान इस शरीर में पहरेदार का ही काम करते हैं - सदा जागरित रहते हैं । इन (दैव्या होतारा) - प्राणापानों को (उपह्वये) - मैं पुकारता हूँ , इनकी प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता हूँ ।
२. (ता) - वे प्राणापान (सुजिह्वा) - उत्तम जिह्वावाले हैं । प्राणापान की शक्ति के ठीक होने पर मेरे मुख से कड़वे शब्द नहीं निकलते । इनकी शक्ति के क्षीण होने पर ही मैं चिड़चिड़े स्वभाववाला बन जाता हूँ और अपशब्द बोलने लगता हूँ ।
३. ये प्राणापान (कवी) - क्रान्तदर्शी हैं , ये मेरी बुद्धि को तीव्र बनाकर मुझे तत्त्वद्रष्टा बनाते हैं ।
४. ये प्राणापान (नः) हमारे (इमम्) - इस (यज्ञम्) - प्रभु से मेल को (यक्षताम्) - करनेवाले हों । प्राणापान द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होकर शुषुम्णा नाड़ी से उसका ऊर्ध्वगमन होता है और मेरुदण्ड के शिखर पर स्थित इन्द्र से इसका मेल हो जाता है । यही रहस्यमयी भाषा में 'पार्वती व प्रभु' का परिणय है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणापान की साधना करने पर हम मधुरभाषी , तत्त्वद्रष्टा व प्रभु से मेलवाले बनते हैं ।