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उप॑ मा श्या॒वाः स्व॒नये॑न द॒त्ता व॒धूम॑न्तो॒ दश॒ रथा॑सो अस्थुः। ष॒ष्टिः स॒हस्र॒मनु॒ गव्य॒मागा॒त्सन॑त्क॒क्षीवाँ॑ अभिपि॒त्वे अह्ना॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa mā śyāvāḥ svanayena dattā vadhūmanto daśa rathāso asthuḥ | ṣaṣṭiḥ sahasram anu gavyam āgāt sanat kakṣīvām̐ abhipitve ahnām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। मा॒। श्या॒वाः। स्व॒नये॑न। द॒त्ताः। व॒धूऽम॑न्तः। दश॑। रथा॑सः। अ॒स्थुः॒। ष॒ष्टिः। स॒हस्र॑म्। अनु॑। गव्य॑म्। आ। अ॒गा॒त्। सन॑त्। क॒क्षीवा॑न्। अ॒भि॒ऽपि॒त्वे। अह्ना॑म् ॥ १.१२६.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:126» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जिस (स्वनयेन) अपने धन आदि पदार्थ के पहुँचाने अर्थात् देनेवाले ने (श्यावाः) सूर्य की किरणों के समान (दत्ताः) दिये हुए (दश) दश (रथासः) रथ (वधूमन्तः) जिनमें प्रशंसित बहुएँ विद्यमान वे (मा) मुझ सेनापति के (उपास्थुः) समीप स्थित होते तथा जो (कक्षीवान्) युद्ध में प्रशंसित कक्षावाला अर्थात् जिसकी ओर अच्छे वीर योद्धा हैं वह (अभिपित्वे) सब ओर से प्राप्ति के निमित्त (अह्नाम्, सहस्रम्) हजार दिन (गव्यम्) गौओं के दुग्ध आदि पदार्थ को (अन्वागात्) प्राप्त होता और जिसके (षष्टिः) साठ पुरुष पीछे चलते वह (सनत्) सदा सुख का बढ़ानेवाला है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस कारण सब योद्धा राजा के समीप से धन आदि पदार्थ की प्राप्ति चाहते हैं, इससे राजा को उनके लिये यथायोग्य धन आदि पदार्थ देना योग्य है, ऐसे विना किये उत्साह नहीं होता ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पहले साठ वर्ष

पदार्थान्वयभाषाः - १. जीव का नेतृत्व दूसरे के द्वारा होता है, यह पर-नेय है । इसे माता, पिता, आचार्य व अतिथि आगे-आगे ले-चलते हैं । प्रभु का नयन किसी और के द्वारा नहीं होता । प्रभु'स्व-नय' हैं । वे स्वयं अपने को आगे प्राप्त कराये हुए हैं । प्रभु ने जीव को शरीररूप रथ दिया है । यह रथ एक होता हुआ भी भिन्न-भिन्न इन्द्रियों से युक्त होता हुआ 'दस' हो गया है । इस रथ पर जीव तो आरूढ़ हुआ ही है । यह अपनी पत्नीरूपा बुद्धि के साथ इस पर आरूढ़ होता है । वस्तुतः यह बुद्धि ही इस रथ का सञ्चालन करती है 'बुद्धिं तु सारथिं विद्धि' । २. इस जीवन को यदि एक दिन से उपमित करें तो जैसे दिन के पाँच प्रहर दिन कहलाते हैं और तीन प्रहर की रात्रि होती है, इसी प्रकार जीवन के प्रथम साठ वर्ष दिन के समान हैं और पिछले चालीस रात्रि के । साठ वर्ष प्रवृत्ति के हैं तो चालीस निवृत्ति के । (कक्षीवान्) = [कक्ष्ण - रजु] संयमी अथवा दृढनिश्चयी पुरुष (अह्नाम्) = जीवन के दिनों के (अभिपित्वे) = [अभिपित्वम् - Dawn] उषाकाल में (सनत) = [सन - सम्भक्तौ] अपने कर्मों का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला होता है और चाहता है कि (षष्टिः) = जीवन के प्रथम साठ वर्षों में (सहस्त्रम्) = [स+हस्] उल्लासमय (गव्यम्) = इन्द्रियों का समूह (अनु) = अनुकूलता से (आगात्) = मुझे प्राप्त होता है । इन्द्रियाँ सदा मेरे वश में होती हैं तभी तो यात्रा की पूर्ति सम्भव होती है । ३. इस कक्षीवान् की प्रार्थना यही है कि (मा) = मुझे (स्वनयेन) = उस अपर प्रणीत प्रभु से (दत्ताः) = दिये हुए (श्यावाः) = गतिशील (वधूमन्तः) = बुद्धिरूप वधूवाले (दश) = दस इन्द्रियों से युक्त होने के कारण दस संख्यावाले (रथासः) = ये शरी-रथ (उप अस्थुः) = समीपता से प्राप्त हों । इन रथों से मैं जीवनयात्रा में आगे बढ़नेवाला बनूं । 'मेरे सब कर्तव्य ठीक से पूर्ण हो सकें' इसके लिए इस रथ में जुतनेवाले इन्द्रियाश्व खूब गतिशील हों [श्यावाः] । मेरी बुद्धिरूपा पत्नी इस रथ का सञ्चालन सुन्दरता से करे । इस प्रकार मेरे विशिष्ट प्रवृत्ति के प्रथम साठ वर्ष ठीक प्रकार पूर्ण हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - मुझे जीवन के प्रारम्भ में सब प्रवृत्तियों की पूर्ति के लिए उत्तम इन्द्रियाँ, शरीर व बुद्धि प्राप्त हों ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ।

अन्वय:

येन स्वनयेन दात्रा सवितुः श्यावा इव दत्ता दशरथासो वधूमन्तो मा मां सेनापतिमुपास्थुः। यः कक्षीवानभिपित्वेऽह्नां सहस्रं गव्यमन्वागाद्यस्य षष्टिः पुरुषा अनुगच्छन्ति स सनत् सुखवर्द्धकोऽस्ति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (मा) माम् (श्यावाः) सवितुः किरणाः (स्वनयेन) स्वस्य नयनं यस्य दातुस्तेन (दत्ताः) (वधूमन्तः) प्रशस्ता वध्वः स्त्रियो विद्यन्ते येषु ते (दश) एतत्संख्याकाः (रथासः) यानानि (अस्थुः) तिष्ठन्ति (षष्टिः) (सहस्रम्) (अनु) (गव्यम्) गवां भावम् (आ) (अगात्) गच्छेत् (सनत्) सदा (कक्षीवान्) युद्धे प्रशस्तकक्षः (अभिपित्वे) सर्वतः प्राप्तौ (अह्नाम्) दिनानाम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्करः। यतः सर्वे योद्धारो राज्ञः सकाशाद्धनादिकं प्राप्तुमिच्छन्ति तस्माद्राज्ञा तेभ्यो यथायोग्यं देयमेवं विनोत्साहो न जायते ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Let there be around me ten chariots bright as sunbeams drawn by bright mares, assigned by the commander. And may the man of knowledge be blest with the wealth of sixty thousand cows and receive welcome and hospitality for days and nights on his social rounds.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

What should a King do is told in the 3rd Mantra.

अन्वय:

The liberal donor (King) gives me (The Chief Commander of the Army) ten chariots drawn by horses like the rays of the sun and carrying women. They stand by me.. That great warrior expert in Military Science is the augmenter of happiness who gets as present thousands of cows (to feed other soldiers) in the beginning of the day and who is followed or accompanied by sixty persons.

पदार्थान्वयभाषाः - (कक्षीवान्) युद्धे प्रशस्तकक्षः = Great expert in Military Science. (अह्वाम अभिपित्वे) दिनानां सर्वतः प्राप्तौ = On the achievement or beginning of the days. (स्वनयेन) स्वस्य नयनं यस्य दातुस्तेन = By the donor or liberal king.
भावार्थभाषाः - As all warriors desire to get wealth and other things from a King, therefore the King should give them whatever he deems proper and necessary. Without this impetus, it is not possible to keep up their zeal and enthusiasm.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व योद्धे राजाकडून धन इत्यादी पदार्थांची प्राप्ती इच्छितात. त्यामुळे राजाने त्यांना यथायोग्य धन द्यावे. असे केल्याशिवाय उत्साह निर्माण होत नाही. ॥ ३ ॥