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याभि॒: सूर्यं॑ परिया॒थः प॑रा॒वति॑ मन्धा॒तारं॒ क्षैत्र॑पत्ये॒ष्वाव॑तम्। याभि॒र्विप्रं॒ प्र भ॒रद्वा॑ज॒माव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhiḥ sūryam pariyāthaḥ parāvati mandhātāraṁ kṣaitrapatyeṣv āvatam | yābhir vipram pra bharadvājam āvataṁ tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याभिः॑। सूर्य॑म्। प॒रि॒ऽया॒थः। प॒रा॒ऽवति॑। म॒न्धा॒तार॑म्। क्षैत्र॑ऽपत्येषु। आव॑तम्। याभिः॑। विप्र॑म्। प्र। भ॒रत्ऽवा॑जम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:112» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:35» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किसके समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) शिल्पविद्या के स्वामी और भृत्यो ! तुम दोनों (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षादि से (परावति) दूर देश में (सूर्य्यम्) प्रकाशमान सूर्य के समान (मन्धातारम्) विमानादि यान से शीघ्र दूर देश को पहुँचानेवाले बुद्धिमान् को (पर्याथः) सब ओर से प्राप्त होओ, (याभिः) जिन रक्षाओं से (क्षैत्रपत्येषु) माण्डलिक राजाओं के काम में उसकी (आवतम्) रक्षा करो और (भरद्वाजम्) विद्या सद्गुणों के धारण करनेवालों को समझानेवाले (विप्रम्) मेधावी पुरुष की (प्रावतम्) अच्छे प्रकार रक्षा करो, (ताभिः, उ) उन्हीं रक्षाओं से हम लोगों के प्रति (सु, आ, गतम्) प्राप्त हूजिये ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - व्यवहार करनेवाले मनुष्यों से विमानादि यानों के विना दूसरे देशों में जाना-आना नहीं हो सकता, इससे बड़ा लाभ नहीं हो सकता। इस कारण नाव-विमानादि की रचना अवश्य सदा करनी चाहिये ॥ १३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

‘विप्र भरद्वाज’

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (ताभिः ऊतिभिः) = उन रक्षणों से (उ) = निश्चयपूर्वक (सु) = उत्तमता से (आगतम्) = हमें प्राप्त होओ , (याभिः) = जिनसे आप (परावति) = सुदूर देश में (सूर्यम्) = सूर्य को (परियाथः) = जाते हो । इस वाक्य का भाव यह है कि यदि प्राणसाधना ठीक प्रकार से चलती है तो हमारा जीवन उत्तरोत्तर निर्दोष बनता जाता है और हमारा अगला जन्म इस पृथिवीलोक पर और मनुष्य के रूप में न होकर द्युलोकस्थ सूर्य में देव रूप से होता है । इसका यह भाव भी हो सकता है कि मस्तिष्करूप द्युलोक में उदय होनेवाले ज्ञानसूर्य को वासनारूप शत्रु का ग्रास होने से आप बचाते हो और इस प्रकार प्राणसाधना के द्वारा ज्ञानसूर्य चमक उठता है ।  २. ज्ञानसूर्य के चमक उठने से (मन्धातारम्) = [मन् - ज्ञान] ज्ञान के धारण करनेवाले इस व्यक्ति को आप (क्षैत्रपत्येषु) = शरीररूप क्षेत्र के रक्षण में [इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते] (आवतम्) = [अव सामर्थ्ये] समर्थ करते हो । जहाँ यह ज्ञानी बनता है , वहाँ शरीर का रक्षण करके शरीर को भी सुदृढ़ बनानेवाला होता है । ज्ञान के दृष्टिकोण से यह एक ऋषि होता है तो शरीर के दृष्टिकोण से मल्ल बनता है ।  ३. हमें उन रक्षणों के साथ प्राप्त होओ (याभिः) = जिनसे आप (वि - प्रम्) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले (भरद्वाजम्) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले को (प्र , आवतम्) = आप आनन्दित करते हो [give pleasure to] । वस्तुतः इन प्राणों की साधना से ही वह अपना पूरण कर पाता है और अपने में शक्ति भर पाता है ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्राणसाधना हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य का उदय करती है , वह हमें शरीररूप क्षेत्र का रक्षण करने में समर्थ करती है । यह हमें ‘विप्र और भरद्वाज’ बनाती है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ काविव किं कुर्यातामित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अश्विना शिल्पविद्यास्वामिभृत्यौ युवां याभिरूतिभिः परावति सूर्यमिव मन्धातारं पर्याथः। याभिः क्षैत्रपत्येषु तमावतं भरद्वाजं विप्रं च प्रावतं ताभिरु स्वागतम् ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याभिः) (सूर्य्यम्) प्रकाशमयम् (परियाथः) सर्वतः प्राप्नुतम् (परावति) विप्रकृष्टे मार्गे (मन्धातारम्) यानेन सद्यो दूरदेशं गमयितारं मेधाविनम्। मन्धातेति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (क्षैत्रपत्येषु) क्षेत्राणां भूमण्डलानां पतयः पालकास्तेषां कर्मसु (आवतम्) रक्षतम् (याभिः) रक्षाभिः (विप्रम्) मेधाविनम् (प्र) (भरद्वाजम्) विद्यासद्गुणान् भरतां वाजं विज्ञापयितारम् (आवतम्) विजानीतम्। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - व्यावहारिकजनैर्विमानादियानैर्विना दूरदेशेषु गमनागमने कर्त्तुमशक्यतेऽतो महान् लाभो भवितुं न शक्यते तस्मादेतत् सर्वदाऽनुष्ठेयम् ॥ १३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - With the communication by which you go round the sphere of the sun in far off orbit, by which you reach and protect the pious man of thought and action over the dominions, by which you protect and promote the scholar of science and the creator and harbinger of food, energy and speed, with all these gifts of protection and progress, O Ashvins, leaders of science and development, come with grace and bless us.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

अन्वय:

O master of technical art and his associate, Please come to us with those protective powers by which you protect a genius who by manufacturing air-crafts and other vehicles takes men to distant lands soon, like the sun shining in the distant sky, by which you protect a highly intelligent and a teacher of the bearers of knowledge and noble virtues in the discharge of his duties of the preservation of the people.

पदार्थान्वयभाषाः - (मन्धतारम् ) यानेन सद्यो दूरदेशं गमयितारं मेधाविनम् मन्धातेति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ ) = A genius who takes people to distant places soon by manufacturing aero-planes etc. (भरद्वाजम्) विद्या सद्गुणान् भरतां वाजं विज्ञापयितारम् । = Teacher of the bearers of knowledge noble virtues. भृ-भरणपोषणयोः वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् |
भावार्थभाषाः - Business men cannot carry on trade without going to distant lands by air-crafts or other swift-going vehicles. They cannot get much profit without this. Therefore they should use such vehicles.
टिप्पणी: It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take मन्धाता and भरद्वाज etc. as the names of particular persons when in the Vedic Lexicon Nighantu, it is clearly stated मन्धातेति मेधावि नाम (निघ० ३.१५) ।
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - व्यवहार करणारी माणसे विमान इत्यादी यानांशिवाय दुसऱ्या देशात जाणे-येणे करू शकत नाहीत. त्यामुळे मोठा लाभ होऊ शकत नाही. त्यासाठी नाव-विमान इत्यादींची निर्मिती सदैव केली पाहिजे. ॥ १३ ॥