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ऋ॒भुर्न॒ इन्द्र॒: शव॑सा॒ नवी॑यानृ॒भुर्वाजे॑भि॒र्वसु॑भि॒र्वसु॑र्द॒दिः। यु॒ष्माकं॑ देवा॒ अव॒साह॑नि प्रि॒ये॒३॒॑ऽभि ति॑ष्ठेम पृत्सु॒तीरसु॑न्वताम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛbhur na indraḥ śavasā navīyān ṛbhur vājebhir vasubhir vasur dadiḥ | yuṣmākaṁ devā avasāhani priye bhi tiṣṭhema pṛtsutīr asunvatām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒भुः। नः॒। इन्द्रः॑। शव॑सा॑। नवी॑यान्। ऋ॒भुः। वाजे॑भिः। वसु॑ऽभिः। वसुः॑। द॒दिः। यु॒ष्माक॑म्। देवाः॑। अव॑सा। अह॑नि। प्रि॒ये। अ॒भि। ति॒ष्ठे॒म॒। पृ॒त्सु॒तीः। असु॑न्वताम् ॥ १.११०.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:110» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर श्रेष्ठ विद्वान् हमारे लिये किससे क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (नवीयान्) अतीव नवीन (ऋभुः) बहुत विद्याओं का प्रकाश करनेवाला विद्वान् जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य अपने प्रकाश और आकर्षण से सबको आनन्द देता है वैसे (शवसा) विद्या और उत्तम शिक्षा के बल से (नः) हमको सुख देवे वा जो (ऋभुः) धीरबुद्धि आयुर्दा और सभ्यता का प्रकाश करनेवाला (वाजेभिः) विज्ञान, अन्न और संग्रामों से वा (वसुभिः) चक्रवर्त्ती राज्य आदि के धनों से (वसुः) आप सुख में वसने और (ददिः) दूसरों को सुखों का देनेवाला होता है उससे अपने राज्य के और सेनाजनों के (अवसा) रक्षा आदि व्यवहार के साथ वर्त्तमान (देवाः) विद्या और अच्छी शिक्षा को चाहते हुए हम विद्वान् लोग (प्रिये) प्रीति उत्पन्न करनेवाले (अहनि) दिन में (असुन्वताम्) अच्छे ऐश्वर्य के विरोधी (युष्माकम्) तुम शत्रुजनों की (पृत्सुतीः) उन सेनाओं के जो कि संबन्ध करानेवालों को ऐश्वर्य पहुँचानेवाली हैं (अभि) सम्मुख (तिष्ठेम) स्थित होवें अर्थात् उनका तिरस्कार करें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अपने प्रकाश से तेजस्वी समस्त चर और अचर जीवों और समस्त पदार्थों के जीवन कराने से आनन्दित करता है वैस विद्वान्, शूरवीर और विद्वानों में अच्छे विद्वान् के सहायों से युक्त हम लोग अच्छी शिक्षा किई हुई, प्रसन्न और पुष्ट अपनी सेनाओं से जो सेना को लिए हुए हैं, उन शत्रुओं का तिरस्कार कर धार्मिक प्रजाजनों को पाल चक्रवर्त्ति राज्य को निरन्तर सेवें ॥ ७ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञानदीप्त + शक्तिसम्पन्न

पदार्थान्वयभाषाः - १. (नः) = हमारे लिए (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (ऋभुः) = [उरु भाति] अत्यन्त देदीप्यमान हैं । (ऋभुः) = वे अत्यन्त देदीप्यमान प्रभु (शवसा) = शक्ति के कारण (नवीयान्) = अत्यन्त स्तुति के योग्य हैं और (वाजेभिः) = अन्नों व अन्नजनित शक्तियों के द्वारा (वसुः) = हमें उत्तम निवास प्राप्त करानेवाले हैं । (वसुभिः) = निवास के लिए आवश्यक धनों के दृष्टिकोण से (ददिः) = हमारे लिए खूब देनेवाले हैं । प्रभु ज्ञान व शक्ति के पुञ्ज हैं । वे शक्तियों व वसुओं के देनेवाले हैं ।  २. (देवाः) = हे देवो ! हमारे जीवनों में वह शुभ दिन कब आएगा , जिस प्रिये अत्यन्त प्रिय (अहनि) = दिन में (युष्माकम् अवसा) = तुम्हारे रक्षण के द्वारा हम (असुन्वताम्) = अयज्ञशीलों की (पृत्सुतीः) = सेनाओं को (अभितिष्ठेम) = अभिभूत करनेवाले होंगे । जीवन में दिव्य भावनाओं का वर्धन हमें यज्ञशील बनाता है । हमपर अयज्ञशील भावनाओं का आक्रमण निरन्तर होता है , परन्तु देवों के रक्षण में हम इस आक्रमण से कुचले नहीं जाते । कुचला जाना तो दूर रहा , हम इन वासनाओं को कुचलकर जीवन को सुन्दर बना पाते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम प्रभु की भाँति ही ज्ञानदीप्त व शक्तिसम्पन्न बनें । वाजों व वसुओं को प्राप्त करनेवाले होकर उत्तम निवासवाले हों । देवों के रक्षण में वासनाओं का पराभव करें ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वानस्मदर्थं केन किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते।

अन्वय:

यो नवीयानृभुर्यथेन्द्रस्तथा शवसा नोऽस्मभ्यं सुखं प्रयच्छेदृभुर्वाजेभिर्वसुभिर्वसुर्ददिस्तेन स्वराज्यसेनानामवसा सह देवा वयं प्रियेऽहन्यसुन्वतां युष्माकं शत्रूणां पृत्सुतीः सेना अभितिष्ठेमाभिभवेम सदा तिरस्कुर्याम ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋभुः) बहुविद्याप्रकाशको विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) यथा सूर्यः स्वस्य प्रकाशाकर्षणाभ्यां सर्वानाह्लादयति तथा (शवसा) विद्यासुशिक्षाबलेन (नवीयान्) अतिशयेन नवः (ऋभुः) मेधाव्याऽऽयुःसभ्यताप्रकाशकः (वाजेभिः) विज्ञानैरन्नैः संग्रामैर्वा (वसुभिः) चक्रवर्त्यादिराज्यश्रीभिः सह (वसः) सुखेषु वस्ता (ददिः) सुखानां दाता (युष्माकम्) (देवाः) विद्यासुशिक्षे जिज्ञासवः (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (अहनि) दिने (प्रिये) प्रसन्नताकारके (अभि) आभिमुख्ये (तिष्ठेम) (पृत्सुतीः) याः संपर्ककारकाणां सुतय ऐश्वर्यप्रापिकाः सेनास्ताः। अत्र पृची धातोः क्विपि वर्णव्यत्ययेन तकारः। तदुपपदादैश्वर्यार्थात् सुधातोः संज्ञायां क्तिच्प्रत्ययः। (असुन्वताम्) स्वैश्वर्यविरोधिनां शत्रूणाम् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा सविता स्वप्रकाशेन तेजस्वी सर्वान् चराचरान् पदार्थान् जीवननिमित्ततयाऽऽह्लादयति तथा विद्वच्छूरवीरविद्वत्कुशलसहाययुक्ता वयं सुशिक्षिताभिर्हृष्टपुष्टाभिः स्वसेनाभिः ससेनान् शत्रूंस्तिरस्कृत्य धार्मिकाः प्रजाः संपाल्य चक्रवर्त्तिराज्यं सततं सेवेमहि ॥ ७ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Rbhu, man of science and wonders is Indra for us, always new and fresh with discoveries and inventions. He is ever new and fresh with creation of food and energy and giver of new wealth and power. O spirits and dwellers of the sky, may we with your power and protection in our dearest days win over the force and armies of ungenerous and selfish people.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य स्वयं प्रकाशयुक्ततेजस्वी व संपूर्ण चर अचर जीवांना आणि संपूर्ण पदार्थांना जीवन देऊन आनंदित करतो तसे विद्वान शूर पुरुष व विद्वानातही अत्यंत विद्वानाच्या साह्याने आम्ही प्रशिक्षित सुसज्ज सेनेद्वारे शत्रूंची अवहेलना व धार्मिक प्रजेचे पालन करून चक्रवर्ती राज्य निरंतर भोगावे. ॥ ७ ॥