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ए॒वेन्द्रा॑ग्नी पपि॒वांसा॑ सु॒तस्य॒ विश्वा॒स्मभ्यं॒ सं ज॑यतं॒ धना॑नि। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evendrāgnī papivāṁsā sutasya viśvāsmabhyaṁ saṁ jayataṁ dhanāni | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। प॒पि॒ऽवांसा॑। सु॒तस्य॑। विश्वा॑। अ॒स्मभ्य॑म्। सम्। ज॒यत॒म्। धना॑नि। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०८.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:108» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:27» मन्त्र:8 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब धनपति और सेनापति कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ गुणयुक्त (अदितिः) उत्तम विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य का प्रकाश जिनको (नः) हम लोगों के लिये (मामहन्ताम्) बढ़ावें (तत्, एव) उन्हीं (विश्वा) समस्त (धनानि) धनों को (सुतस्य) पदार्थों के निकाले हुए रस को (पपिवांसा) पिये हुए (इन्द्राग्नी) अति धनी वा युद्धविद्या में कुशल वीरजन (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (संजयतम्) अच्छी प्रकार जीतें अर्थात् सिद्ध करें ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान्, बलिष्ठ, धार्मिक, कोशस्वामी और सेनाध्यक्ष और उत्तम पुरुषार्थ करनेवालों के विना विद्या आदि धन नहीं बढ़ सकते हैं। जैसे मित्र आदि अपने मित्रों के लिये सुख देते हैं वैसे ही कोशस्वामी और सेनाध्यक्ष आदि प्रजाजनों के लिये सुख देते हैं, इससे सबको चाहिये कि इनकी सदा पालना करें ॥ १३ ॥इस सूक्त में पवन और बिजुली आदि गुणों के वर्णन से उसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०८ एकसौ आठवाँ सूक्त और २७ सत्ताईसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सर्वधन - विजय

पदार्थान्वयभाषाः - १. (एव) = इस प्रकार हे (इन्द्राग्नी) = शक्ति व प्रकाश के देवो ! आप (सुतस्य पपिवांसा) = उत्पन्न सोम का खूब ही पान करनेवाले होओ । वस्तुतः सोम का शरीर में रक्षण होने पर ही शक्ति व ज्ञान का वर्धन निर्भर करता है और साथ ही शक्ति व ज्ञान के वर्धन में लगे रहने पर सोम का रक्षण सम्भव है । यही तो इन्द्राग्नी का सोमपान कहलाता है ।  २. शरीर में विकसित हुए हुए ये इन्द्र व अग्नि (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (विश्वा धनानि) = सम्पूर्ण धनों को (संजयतम्) = जीतनेवाले हों । इन्द्र व अग्नि के विकास के द्वारा हम संसार में , हमें धन्य बनानेवाली सब सम्पत्तियों को प्राप्त करते हैं , सब इन्द्रियों , मन व बुद्धि की शक्तियों को भी प्राप्त करते हैं । इन शक्ति और धनों के विजय से ही जीवन सुन्दर बनता है । (नः) = हमारे (तत्) = उस “सर्वधन - विजय” के संकल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) = अदिति , (सिन्धुः) = सिन्धु , (पृथिवी) = पृथिवी (उत) = और (द्यौः) = द्युलोक (मामहन्ताम्) = आदृत करें । मित्रादि के अनुग्रह से हमारा यह संकल्प बना रहे और पूर्ण हो । मित्र स्नेह का देवता है , वरुण निर्द्वेषता का , अदिति का अर्थ अखण्डन व स्वास्थ्य हैं , सिन्धु उस स्वास्थ्य के लिए शरीर में स्थापित रेतः कण हैं , पृथिवी शरीर है और द्यौ मस्तिष्क है । ये सब इन्द्राग्नी के द्वारा हमारे सर्वधन - विजय के संकल्प को पूर्ण करें । वस्तुतः विश्वविजय के लिए “स्नेह , निर्द्वेषता , स्वास्थ्य , रेतः कण - रक्षण , दृढ़ शरीर व दीप्त मस्तिष्क” आवश्यक हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सोम - रक्षण के द्वारा हमारे जीवनों में इन्द्राग्नी का , शक्ति व प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है । इनसे हम सवर्धन - विजय करनेवाले हों ।   
टिप्पणी: विशेष - सूक्त का प्रारम्भ “इन्द्राग्नी” के अद्भुत रथ के वर्णन से हुआ है [१] । समाप्ति पर इस इन्द्राग्नी के रथ के द्वारा सम्पूर्ण धनों के विजय का उल्लेख है [१३] । इन्हीं इन्द्राग्नी का विषय ही अगले सूक्त में है । इन्हीं को हम अपना बन्धु समझें -  
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्धनपतिसेनाध्यक्षौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्यानि नोऽस्मभ्यं मामहन्तां तत् तान्येव विश्वा धनानि सुतस्य निष्पन्नस्य रसं पपिवांसा इन्द्राग्नी संजयतं सम्यक् साधयतः ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) अवधारणे (इन्द्राग्नी) परमधनाढ्यो युद्धविद्याप्रवीणश्च (पपिवांसा) पीतवन्तौ (सुतस्य) निष्पन्नस्य (विश्वा) अखिलानि (अस्मभ्यम्) (सम्) (जयतम्) (धनानि) (तन्नो, मित्रो०) इति पूर्ववत् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - नहि विद्वद्भ्यां बलिष्ठाभ्यां धार्मिकाभ्यां कोशसेनाध्यक्षाभ्यां विनोत्तमपुरुषार्थिनां विद्यादिधनानि वर्धितुं शक्यानि तथा मित्रादयः स्वमित्रेभ्यः सुखानि प्रयच्छन्ति तथैव कोशसेनाध्यक्षादयः प्रजास्थेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि ददति तस्मात्सर्वैरेतौ सदा संपालनीयौ ॥ १३ ॥अत्र पवनविद्युदादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्यष्टोत्तरशततमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra and Agni, treasure sources of knowledge, wealth and victory, having drunk of the soma distilled from life and nature may, we pray, win for us all the wealth of the world. May Mitra, Varuna, Aditi, rivers and the seas, earth and heaven bliss this wish and prayer and raise us to the dignity and prosperity of life.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान, बलवान, धार्मिक, कोषाध्यक्ष व सेनाध्यक्ष आणि उत्तम पुरुषार्थ करणाऱ्याशिवाय विद्या इत्यादी धन वाढू शकत नाही, जसे मित्र आपल्या मित्रांना सुख देतात तसेच कोषाध्यक्ष व सेनाध्यक्ष इत्यादी प्रजाजनांना सुख देतात. यामुळे सर्वांनी यांचे सदैव पालन करावे. ॥ १३ ॥