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स त्वं न॑ इन्द्र॒ सूर्ये॒ सो अ॒प्स्व॑नागा॒स्त्व आ भ॑ज जीवशं॒से। मान्त॑रां॒ भुज॒मा री॑रिषो न॒: श्रद्धि॑तं ते मह॒त इ॑न्द्रि॒याय॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa tvaṁ na indra sūrye so apsv anāgāstva ā bhaja jīvaśaṁse | māntarām bhujam ā rīriṣo naḥ śraddhitaṁ te mahata indriyāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। सूर्ये॑। सः। अ॒प्ऽसु। अ॒ना॒गाः॒ऽत्वे। आ। भ॒ज॒। जी॒व॒ऽशं॒से। मा। अन्त॑राम्। भुज॑म्। आ। रि॒रि॒षः॒। नः॒। श्रद्धि॑तम्। ते॒। म॒ह॒ते। इ॒न्द्रि॒याय॑ ॥ १.१०४.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभा के स्वामी ! जिन (ते) आपके (महते) बहुत और प्रशंसा करने योग्य (इन्द्रियाय) धन के लिये (नः) हम लोगों का (श्रद्धितम्) श्रद्धाभाव है (सः) वह (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के (भुजम्) भोग करने योग्य प्रजा को (अन्तराम्) बीच में (मा) मत (आरीरिषः) रिषाइये मत मारिये और (सः) सो आप (सूर्य्ये) सूर्य्य, प्राण (अप्सु) जल (अनागास्त्वे) और निष्पाप में तथा (जीवशंसे) जिसमें जीवों की प्रशंसा स्तुति हो, उस व्यवहार में उपमा को (आ, भज) अच्छे प्रकार भेजिये ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - सभापतियों को जो प्रजाजन श्रद्धा से राज्यव्यवहार की सिद्धि के लिये बहुत धन देवें वे कभी मारने योग्य नहीं और जो प्रजाओं में डांकू वा चोर हैं वे सदैव ताड़ना देने योग्य हैं। जो सेनापति के अधिकार को पावे वह सूर्य्य के तुल्य न्यायविद्या का प्रकाश, जल के समान शान्ति और तृप्तिकर, अन्याय और अपराध का त्याग और प्रजा के प्रशंसा करने योग्य व्यवहार का सेवन कर राज्य को प्रसन्न करे ॥ ६ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ज्ञान , कर्म , निर्दोषता

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स त्वम्) = वह आप (नः) = हमें (सूर्ये) = सूर्य में (आभज) = भागी बनाइए , हम सूर्य की किरणों का सेवन करनेवाले बनें । सूर्यकिरणें हमारे रोगकृमियों का नाश करके हमें स्वस्थ बनाएँ । (सः) = वे आप (नः) = हमें (अप्सु) = जलों में भागी बनाइए , सूर्य - स्नान के पश्चात् अतिरिक्त उष्णता को दूर करने के लिए हम जलों में स्नान करें ।  २. ‘सूर्ये आभज’ की भावना यह भी है कि आप हमें ज्ञान के सूर्य में भागी बनाइए और (अप्सु) = कर्मों में भागी बनाइए । हम ज्ञान प्राप्त करें और ज्ञान के अनुसार कर्म करनेवाले हों । ज्ञान उन कर्मों को पवित्र करनेवाला होगा । इस प्रकार हे (इन्द्र) = प्रभो ! आप हमें (अनागस्त्वे) = उस निरपराधता में भागी बनाइए जो निरपराधता (जीवशंसे) = सब जीवों से प्रशंसनीय होती है , जिस निरपराधता को सब चाहते हैं और जिसकी सब प्रशंसा करते हैं ।  ३. हे प्रभो ! आप (नः) = हमारी (अन्तराम्) = अन्दर निवास करनेवाली (भुजम्) = पालन व व्यवहार की शक्ति को (मा) = मत (आरीरिषः) = हिंसित कीजिए । रोगों के साथ मुकाबिला करनेवाली शक्ति , पालन - शक्ति है तथा खाने की शक्ति , पाचन - शक्ति , अभ्यवहार - शक्ति है । इन दोनों के ठीक होने पर हमारा स्वास्थ्य पूर्णतया ठीक रहता है ।  ४. हे प्रभो ! (ते महते इन्द्रियाय) = आपकी महती शक्ति के लिए (श्रत् हितम्) = हमसे श्रद्धा की गई है । आपकी इस शक्ति में भागी बनकर ही हम ज्ञान , क्रियाशीलता व निरपराधता को प्राप्त करते हैं , तभी हम पालन व अभ्यवहार की शक्ति के ठीक होने से स्वस्थ बनते हैं ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभुकृपा से हमारा जीवन प्रकाश व क्रियावाला हो और इस प्रकार हम निर्दोष व स्वस्थ हों ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्र यस्य ते महत इन्द्रियाय नोऽस्माकं श्रद्धितमस्ति स त्वं नोऽस्माकं भुजं प्रजामन्तरां मारीरिषः। स त्वं सूर्य्येऽप्स्वनागास्त्वे जीवशंसे चोपमामाभज ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (त्वम्) (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सभादिस्वामिन् (सूर्ये) सवितृमण्डले प्राणे वा (सः) (अप्सु) जलेषु (अनागास्त्वे) निष्पापभावे। अत्र वर्णव्यत्ययेनाकारस्य स्थान आकारः। (आ) (भज) सेवस्व (जीवशंसे) जीवानां शंसा स्तुतिर्यस्मिँस्तस्मिन् व्यवहारे चोपमाम् (मा) (अन्तराम्) मध्ये पृथग्वा (भुजम्) भोक्तव्यां प्रजाम् (आ) (रीरिषः) हिंस्याः (नः) (श्रद्धितम्) श्रद्धा संजाताऽस्येति (ते) (महते) बृहते पूजिताय वा (इन्द्रियाय) धनाय। इन्द्रियमिति धनना०। निघं० २। १०। ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - सभापतिभिर्याः प्रजा श्रद्धया राज्यव्यवहारसिद्धये महद्धनं प्रयच्छन्ति ताः कदाचिन्नैव हिंसनीयाः। यास्तु दस्युचोरभूताः सन्त्येताः सदैव हिंसनीयाः। यः सेनापत्यधिकारं प्राप्नुयात्स सूर्य्यवन्न्यायविद्याप्रकाशं जलवच्छान्तितृप्ती अन्यायापराधराहित्यं प्रजाप्रशंसनीयं व्यवहारं च सेवित्वा राष्ट्रं रञ्जयेत् ॥ ६ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord ruler of light and power, give us the brilliance of the sun. Give us the coolness and plenty of waters. Establish us firmly in sinlessness for a full life of joy. Pray do not hurt our people, they are worthy of protection. We are dedicated in faith to you for the sake of wealth and prosperity.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How should they behave towards one another is taught further in the sixth Mantra.

अन्वय:

O Indra (President of the Assembly) As we have trust in thy mighty power and great wealth, do not in any way harm our subjects that are always to be protected. Give us a share of sun-light or vital power, calmness of the waters, sinlessness and good reputation on account of good conduct.

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) सभादिस्वामिन् । = O President of the Assembly or Commander of the army etc. (सूर्ये) सवितृमण्डले प्राणे वा = In the solar system or the Prana (Vital breath) (भुजम्) भोक्तव्यां प्रजाम् = The subjects that are to be well-guarded. (इन्द्रियाय) धनाय इन्द्रियमिति धननाम (निघ० २.१०) = For wealth.
भावार्थभाषाः - President of the Assembly or other officers of the State should never give punishment to such people among the subjects of a State as give much wealth for the accomplishment of the works related to the administration with honesty and genuine faith. But those who are thieves and robbers and other wicked people, they should always be punished severely. He who gets the authority or rank of the Commander of an army, should please his countrymen by spreading the light of knowledge and justice like the sun, by generating like water, peace and satisfaction, by being free from injustice and guilt and by conducting himself in an admirable manner.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्रजानन राज्यव्यवहाराच्या सिद्धीसाठी श्रद्धेने पुष्कळ धन सभापतींना देतात त्यांचे कधी हनन करू नये व जे प्रजेमध्ये दुर्जन व चोर आहेत ते सदैव ताडना करण्यायोग्य असतात. जो सेनापती बनतो त्याने सूर्याप्रमाणे न्यायविद्येचा प्रकाश, जलाप्रमाणे शांती व तृप्ती करून, अन्याय, अपराध नष्ट करावा व प्रजेशी प्रशंसायुक्त व्यवहाराचे सेवन करून राज्याला प्रसन्न करावे. ॥ ६ ॥