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यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी पौंस्यं॑ म॒हद्यस्य॑ व्र॒ते वरु॑णो॒ यस्य॒ सूर्य॑:। यस्येन्द्र॑स्य॒ सिन्ध॑व॒: सश्च॑ति व्र॒तं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya dyāvāpṛthivī pauṁsyam mahad yasya vrate varuṇo yasya sūryaḥ | yasyendrasya sindhavaḥ saścati vratam marutvantaṁ sakhyāya havāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पौंस्य॑म्। म॒हत्। यस्य॑। व्र॒ते। वरु॑णः। यस्य॑। सूर्यः॑। यस्य॑। इन्द्र॑स्य। सिन्ध॑वः। सश्च॑ति। व्र॒तम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और सभाध्यक्ष कैसे-कैसे गुणवाले होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (यस्य) जिस (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यवान् जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष राजा के (व्रते) सामर्थ्य वा शील में (महत्) अत्यन्त उत्तमगुण और (पौंस्यम्) पुरुषार्थयुक्त बल है (यस्य) जिसका (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और भूमि के सदृश सहनशीलता और नीति का प्रकाश वर्त्तमान है (यस्य) जिसके (व्रतम्) सामर्थ्य वा शील को (वरुणः) चन्द्रमा वा चन्द्रमा का शान्ति आदि गुण (यस्य) जिसके सामर्थ्य और शील को (सूर्यः) सूर्यमण्डल वा उसका गुण (सश्चति) प्राप्त होता और (सिन्धवः) समुद्र प्राप्त होते हैं, उस (मरुत्वन्तम्) समस्त प्राणियों से और समय-समय पर यज्ञादि करनेहारों से युक्त सभाध्यक्ष को (सख्याय) मित्र के काम वा मित्रपन के लिये (हवामहे) स्वीकार करते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिस परमेश्वर के सामर्थ्य के विना पृथिवी आदि लोकों की स्थिति अच्छे प्रकार नहीं होती तथा जिस सभाध्यक्ष के स्वभाव और वर्त्ताव की प्रकाश के समान विद्या, पृथिवी के समान सहनशीलता, चन्द्रमा के तुल्य शान्ति, सूर्य्य के तुल्य नीति का प्रकाश और समुद्र के समान गम्भीरता है, उसको छोड़के और को अपना मित्र न करें ॥ ३ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शक्ति व नियमितता

पदार्थान्वयभाषाः - १. (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (यस्य) = जिस इन्द्र के (महत् पौंस्यम्) = महान् बल को (सश्चति) = प्राप्त होते हैं , अर्थात् जिसके बल से द्युलोक दीप्त हैं और पृथिवी दृढ़ है । (यस्य व्रते वरुणः) = जिसके व्रत में वरुण - रात्र्याभिमानी देव चन्द्रमा [सश्चति] चलता है और (यस्य) = जिसके व्रत में (सूर्यः) = यह सूर्य नियमित रूप से उदय होता है । चन्द्रमा और सूर्य भी उस प्रभु के उपासन में नियमित रूप से उदय को प्राप्त होते हैं । (यस्य) = जिस (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (व्रतम्) = व्रत को (सिन्धवः) = सब नदियाँ (सश्चति) = प्राप्त होती है , अर्थात् जिसके प्रशासन में ये सब नदियाँ प्रवाहित होती हैं , उस (मरुत्वन्तम्) = प्राणोंवाले प्रभु को (सख्या) = मित्रता के लिए (हवामहे) = हम पुकारते हैं ।  २. प्रभु की शक्ति से ब्रह्माण्ड शक्तिसम्पन्न हो रहा है । प्रभु के प्रशासन में सब देव नियमित गति से चल रहे हैं । हम भी उस प्रभु के मित्र बनेंगे तो उस प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होंगे और अपने जीवन की प्रत्येक गति में नियमित हो सकेंगे ।   
भावार्थभाषाः - भावार्थ - सारा ब्रह्माण्ड प्रभु की शक्ति से शक्ति - सम्पन्न हो रहा है , उसी के नियम में चल रहा है ।   
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरसभाध्यक्षौ कीदृशगुणावित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

वयं यस्येन्द्रस्य व्रते महत्पौंस्यमस्ति यस्य द्यावापृथिवी यस्य व्रतं वरुणो यस्य व्रतं सूर्य्यः सश्चति सिन्धवश्च सश्चति तं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी इव क्षमान्यायप्रकाशो (पौंस्यम्) पुरुषार्थयुक्तं बलम् (महत्) महोत्तमगुणविशिष्टम् (यस्य) (व्रते) सामर्थ्ये शीले वा (वरुणः) चन्द्र एतद्गुणो वा (यस्य) (सूर्य्यः) सवितृलोकः। एतद्गुणो वा (यस्य) (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य सभाध्यक्षस्य वा (सिन्धवः) समुद्राः (सश्चति) प्राप्नोति। सश्चतीति गतिकर्म्मा। निघं० २। १४। (व्रतम्) सामर्थ्यं शीलं वा (मरुत्वन्तम्) सर्वप्राणियुक्तमृत्विग्युक्तं वा। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या यस्य सामर्थ्येन विना पृथिव्यादीनां स्थितिर्न संभवति यस्य सभाद्यध्यक्षस्य प्रकाशवद्विद्या पृथिवीवत् क्षमा चन्द्रवच्छान्तिः सूर्य्यवन्नीतिप्रदीप्तिः समुद्रवद् गाम्भीर्यं वर्त्तते तं विहायाऽन्यं सुहृदं नैव कुर्य्युः ॥ ३ ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For love, friendship and support, we invoke and pray to Indra, omnipotent lord of the Maruts who post across the universe and maintain the kingdom. Mighty is the force in his Law of Dharma for nature and humanity. The heaven and the moon in their orbits move as fixed by Law. The seas roll and rivers flow in accordance with the Law. (We pray, help us, lord, to follow the Law and enjoy the divine grace.)
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

How are God and the President of the assembly is taught in the third Mantra.

अन्वय:

(1) In the case of God : We invoke Indra (God the Lord of the Universe for our friendship who is within all beings, who is Almighty by His very nature, whose great power pervedas heaven and earth and who controls all the worlds, in whose service or in whose control are the sun, the moon and oceans. (2) In the case of the President of the Assembly or the State. We invoke Indra (President of the Assembly) for friendship who is endowed with great might, in whose temperament is the combination of the Sun, the moon and waters, and who surrounded by learned priests.

पदार्थान्वयभाषाः - (द्यावा पृथिवी) - प्रकाश भूमि इव क्षमान्यायप्रकाशौ = Forgiveness and the light of Justice like the heaven end earth. (मरुत्वन्तम्) सर्वप्राणियुक्तम् ऋत्विग्युक्तं वा = Living within all beings in the case of God and surrounded by learned priests in the case of President of the Assembly or State. (सश्चति) प्राप्नोति सश्चतीति गतिकर्मा (निघ० २.१४) = Obtains or moves.
भावार्थभाषाः - There is Shleshalankara. Men should make God their friend without whose sustaining power, the earth and other worlds can not stand. They should also have friendship with the President of the Assembly etc. who possesses knowledge like the light, forgiveness like the earth, calmness like the moon, brightness of the policy like the sun and depth or sereneness like the ocean. No one who does not possess these virtues, should be regarded as a true friend.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या परमेश्वराच्या सामर्थ्याशिवाय पृथ्वीची स्थिती योग्य राहू शकत नाही व ज्या सभाध्यक्षाच्या स्वभावात प्रकाशाप्रमाणे विद्या, पृथ्वीप्रमाणे क्षमा, चंद्राप्रमाणे शांतता, सूर्याप्रमाणे नीतीचा प्रकाश व समुद्राप्रमाणे गांभीर्य अशी उत्तम गुणवैशिष्ट्ये असतात. त्याला सोडून इतरांना आपला मित्र करू नये. ॥ ३ ॥