वृष्णे॒ शर्धा॑य॒ सुम॑खाय वे॒धसे॒ नोधः॑ सुवृ॒क्तिं प्र भ॑रा म॒रुद्भ्यः॑। अ॒पो न धीरो॒ मन॑सा सु॒हस्त्यो॒ गिरः॒ सम॑ञ्जे वि॒दथे॑ष्वा॒भुवः॑ ॥
vṛṣṇe śardhāya sumakhāya vedhase nodhaḥ suvṛktim pra bharā marudbhyaḥ | apo na dhīro manasā suhastyo giraḥ sam añje vidatheṣv ābhuvaḥ ||
वृष्णे॑। शर्धा॑य। सुऽम॑खाय। वे॒धसे॑। नोधः॑। सु॒ऽवृ॒क्तिम्। प्र। भ॒र॒। म॒रुत्ऽभ्यः॑। अ॒पः। न। धीरः॑। मन॑सा। सु॒ऽहस्त्यः॑। गिरः॑। सम्। अ॒ञ्जे॒। वि॒दथे॑षु। आ॒ऽभुवः॑ ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चौसठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, उसके पहिले मन्त्र में वायु के गुणों के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ वायुस्वरूपगुणदृष्टान्तेन विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
हे नोधो मनुष्य ! आभुव अपो नेव धीरः सुहस्त्योऽहं वृष्णे शर्द्धाय वेधसे सुमखाय मनसा मरुद्भ्यो विदथेषु गिरः सुवृक्तिं च समञ्जे तथैव त्वं प्रभर ॥ १ ॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात वायूच्या गुणांचा उपदेश असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.