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अधि॒ पेशां॑सि वपते नृ॒तूरि॒वापो॑र्णुते॒ वक्ष॑ उ॒स्रेव॒ बर्ज॑हम्। ज्योति॒र्विश्व॑स्मै॒ भुव॑नाय कृण्व॒ती गावो॒ न व्र॒जं व्यु१॒॑षा आ॑व॒र्तम॑: ॥

English Transliteration

adhi peśāṁsi vapate nṛtūr ivāporṇute vakṣa usreva barjaham | jyotir viśvasmai bhuvanāya kṛṇvatī gāvo na vrajaṁ vy uṣā āvar tamaḥ ||

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Pad Path

अधि॑। पेशां॑सि। व॒प॒ते॒। नृ॒तूःऽइ॑व। अप॑। ऊ॒र्णु॒ते॒। वक्षः॑। उ॒स्राऽइ॑व बर्ज॑हम्। ज्योतिः॑। विश्व॑स्मै। भुव॑नाय। कृ॒ण्व॒ती। गावः॑। न। व्र॒जम्। वि। उ॒षाः। आ॒व॒रित्या॑वः। तमः॑ ॥ १.९२.४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:92» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:24» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे कैसी हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जो (उषाः) सूर्य्य की किरण (नृतूरिव) जैसे नाटक करनेवाला वा नट वा नाचनेवाला वा बहुरूपिया अनेक रूप धारण करता है, वैसे (पेशांसि) नानाप्रकार के रूपों को (अधिवपते) ठहराती है वा (वक्षः+उस्रेव) जैसे गौ अपनी छाती को वैसे (बर्जहम्) अन्धेरे को नष्ट करनेवाले प्रकाश के नाशक अन्धकार को (अपऊर्णुते) ढांपती वा (विश्वस्मै) समस्त (भुवनाय) उत्पन्न हुए लोक के लिये (ज्योतिः) प्रकाश को (कृण्वती) करती हुई (व्रजं, गावो, न) जैसे निवासस्थान को गौ जाती हैं, वैसे स्थानान्तर को जाती और (तमः) अन्धकार को (व्यावः) अपने प्रकाश में ढांप लेती हैं वैसे उत्तम स्त्री अपने पति को प्रसन्न करे ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सूर्य्य की केवल ज्योति है वह दिन कहाता और जो तिरछी हुई भूमि पर पड़ती है वह (उषा) प्रातःकाल की वेला कहाती है अर्थात् प्रातःसमय अति मन्द सूर्य्य की उजेली तिरछी चाल से जहाँ-तहाँ लोक-लोकान्तरों पर पड़ती है उसके विना संसार का पालन नहीं हो सकता, इससे इस विद्या की भावना मनुष्यों को अवश्य होनी चाहिये ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे मनुष्या योषा नृतूरिव पेशांस्यधि वपते वक्ष उस्रेव बर्जहं तमोऽपोर्णु ते विश्वस्मै भुवनाय ज्योतिः कृण्वतो व्रजं गावो न गच्छति तमोऽन्धकारं व्यावश्च स्वप्रकाशेनाच्छादयति तथा साध्वी स्त्री स्वपति प्रसादयेत् ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (अधि) उपरिभावे (पेशांसि) रूपाणि (वपते) स्थापयति (नृतूरिव) यथा नर्त्तको रूपाणि धरति तथा। नृतिशृध्योः कूः। उ० १। ९१। अनेन नृतिधातोः कूप्रत्ययः। (अप) दूरीकरणे (ऊर्णुते) आच्छादयति (वक्षः) वक्षस्थलम् (उस्रेव) यथा गौस्तथा (बर्जहम्) अन्धकारवर्जकं प्रकाशं हन्ति तत् (ज्योतिः) प्रकाशम् (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) जाताय लोकाय (कृण्वती) कुर्वती (गावः) धेनवः (न) इव (व्रजम्) निवासस्थानम् (वि) विविधार्थे (उषाः) (आवः) वृणोति (तमः) अन्धकारम् ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। सूर्यस्य यत्केवलं ज्योतिस्तद्दिनं यत्तिर्यग्गति भूमिस्पृक् तदुषाश्चेत्युच्यते नैतया विना जगत्पालनं संभवति तस्मादेतद्विद्या मनुष्यैरवश्यं भावनीया ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी सूर्याची ज्योती दिसते तो दिवस व जी तिरकी भूमीवर पडते ती (उषा) प्रातःकाळची वेळ म्हणविली जाते. प्रातःकाळी अति मंद सूर्याच्या उज्ज्वल तिरक्या चालीने लोकलोकांतरी पसरते. तिच्याशिवाय जगाचे पालन होऊ शकत नाही. यासाठी या विद्येची जाण माणसांना अवश्य असली पाहिजे. ॥ ४ ॥