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तनू॑नपात्प॒थ ऋ॒तस्य॒ याना॒न्मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व । मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन्दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं न॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tanūnapāt patha ṛtasya yānān madhvā samañjan svadayā sujihva | manmāni dhībhir uta yajñam ṛndhan devatrā ca kṛṇuhy adhvaraṁ naḥ ||

पद पाठ

तनू॑ऽनपात् । प॒थः । ऋ॒तस्य॑ । याना॑न् । मध्वा॑ । स॒म्ऽअ॒ञ्जन् । स्व॒द॒य॒ । सु॒ऽजि॒ह्व॒ । मन्मा॑नि । धी॒भिः । उ॒त । य॒ज्ञम् । ऋ॒न्धन् । दे॒व॒ऽत्रा । च॒ । कृ॒णु॒हि॒ । अ॒ध्व॒रम् । नः॒ ॥ १०.११०.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:110» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:9» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुजिह्व) हे शोभन ज्वालावाली अग्नि ! या शोभन वेदवाणीवाले परमात्मन् ! (तनूनपात्) यज्ञ करनेवाले यजमान देहों को न गिरानेवाले या स्तुतिकर्त्ता देहों जनों को न गिरानेवाले परमात्मन् ! (ऋतस्य) होमयज्ञ के या ब्रह्मयज्ञ के (यानान् पथः) जाने योग्य मार्गों को (मध्वा) मधु से (समञ्जन्) संयुक्त करता हुआ (स्वदय) स्वयं स्वाद से ग्रहण कर या अन्यों को स्वाद दे (धीभिः) कर्मों से (उत) तथा (मन्मानि) मननसाधन अन्तःकरणों को (यज्ञम्) होमयज्ञ या ब्रह्मयज्ञ को (ऋन्धन्) समृद्ध करता हुआ स्थिर रहे या विराज (नः) हमारे (च) और (अध्वरम्) अहिंसनीय कर्म को (देवत्रा) देवों में या इन्द्रियों में (कृणुहि) प्रेरित कर, इन्द्रियाँ विषयों से विरक्त हो जावें ॥२॥
भावार्थभाषाः - यज्ञ में प्रयुक्त अग्नि शोभन ज्वालावाला यज्ञ करनेवाले यजमानपरिवार को स्वस्थ रखता है और उनके गृहसम्बन्धी जीवनमार्गों को मधुर बना देता है, गृहस्थकर्मों से उनके यज्ञ और अन्तःकरणों को समृद्ध करता है, अहिंसनीय यथार्थ आचरण को इन्द्रियों में चरितार्थ कर देता है एवं वेदवाणी से सम्पन्न परमात्मा स्तुति करनेवाले जनों को गिरने नहीं देता है, पतित नहीं होने देता है, उनके ब्रह्मयज्ञ के प्रकारों को मधुर बनाता है, कर्मों से अध्यात्मयज्ञ तथा अन्तःकरणों को समृद्ध करता है और अहिंसनीय-अहिंसा आदि व्रत को इन्द्रियों में चरितार्थ करा देता है, जो विषयों से विरक्त हो जाती हैं ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुजिह्व) हे शोभनज्वाले ! “काली कराली च…सप्तजिह्वा” [मुण्डको० १।२।१] यद्वा शोभनवेदवाग्युक्त ! “जिह्वा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (तनूनपात्) यज्ञकर्तॄन् देहान् जनान् न पातयितः ! यद्वा प्रशस्तदेहान् स्तोतॄन् न पातयितः परमात्मन् ! (ऋतस्य) सोमयज्ञस्य यद्वा ब्रह्मयज्ञस्य वा (यानान् पथः) यातुं योग्यान् मार्गान् (मध्वा) मधुना (समञ्जन्) संयोजयन् सन् (स्वदय) त्वं स्वदय यद्वा स्तोतॄन् स्वादय (धीभिः) कर्मभिः (उत) अपि (मन्मानि) मननसाधनानि खल्वन्तःकरणानि (यज्ञम्) होमयज्ञं ब्रह्मयज्ञं वा (ऋन्धन्) समृद्धानि कुर्वन् तिष्ठ (नः) अस्माकम् (अध्वरं च) अहिंसनीयं श्रेष्ठकर्म (देवत्रा कृणुहि) देवेषु तथेन्द्रियेषु प्रेरय यथा विषयेभ्यो विरक्तानि खल्विन्द्रियाणि भवेयुः ॥२॥